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स्वाधीनता।

अच्छी बातें करने की इच्छा, और रूढ़ि की प्रबलता में निरन्तर विरोध जारी है। रूढ़ बातों की अपेक्षा अधिक अच्छी बातें करने की वासना कभी तो सुधार, अर्थात् संशोधन, से और कभी स्वतन्त्रता से सम्बन्ध रखती है। सुधार और स्वतंत्रता की वासनायें हमेशा एक नहीं होतीं; अर्थात् यह नहीं कि वे दोनों एक दूसरी से हमेशा अभिन्न रहती हों। क्योंकि समाज-संशोधक लोग बहुधा उन आदमियों से भी जबरदस्ती सुधार स्वीकार कराने की कोशिश करते हैं जो दिल से सुधार नहीं चाहते। अतएव स्वतंत्रता की वासना रखनेवालों को इस प्रकार की कोशिशों को रोकने के लिए कुछ काल तक सुधार न चाहनेवालों से मेल कर लेना पड़ता है। परन्तु सुधार और उन्नति का चिरस्थायी और कभी विफल न होनेवाला साधन सिर्फ स्वाधीनता ही है। क्योंकि स्वाधीनता की सहायता लेने से—स्वाधीनता का आश्रय स्वीकार करने से—जितने आदमी उतने ही दरवाजे भी सुधार के खुल जाते हैं। अर्थात् हर आदमी बिना प्रतिबन्ध के, अपनी अपनी उन्नति—अपना अपना सुधार—कर सकता है। उत्तरोत्तर उत्कर्ष-साधक सिद्धान्त चाहे जिस रूप में हो—अर्थात् चाहे वह स्वाधीनता-प्रेम के रूप में हो, चाहे उन्नति-प्रेम या संशोधन-प्रेम के रूप में हो—उससे और रूढ़ि से कभी मेल नहीं हो सकता। उत्कर्षसाधक-सिद्धान्त और रूढ़ि की सत्ता में परस्पर विरोध बना ही रहेगा; उनका वैर-भाव कभी जाने का नहीं। इस सिद्धान्त से यदि और कुछ न होगा तो इतना तो जरूर ही होगा कि रूढ़िकी सत्ता की वह कभी परवा न करेगा; उसके बन्धन से वह जरूर छूट जायगा। मनुष्य-जाति के इतिहास में उत्कर्ष-प्रेम और रूढ़ि-प्राबल्य का पारस्परिक विरोध ही सब से अधिक ध्यान में रखने लायक बात है। सच पूछिये तो दुनिया के आधे से अधिक हिस्से का कोई इतिहास ही नहीं है; क्योंकि वहां रूढ़ि के प्राबल्य—रूढ़ि के जुल्मका ही पूरे तौर पर राज्य है। दुनिया के पूर्वी हिस्से में यही दशा है। वहां हर बात में आदमियों को रूढ़ि ही की शरण जाना पड़ता है। रूढ़ि ही उनकी हाईकोर्ट है। इन्साफ और हक का अर्थ भी लोग वहां रूढ़िही को मानते हैं। बल और अधिकार से उन्मत्त हुए एक आध राजाको छोड़ कर और आदमी रूढ़ि की सत्ता को रोकने के लिए कुछ भी कहने का इरादा तक नहीं करते। इसका जो फल हुआ है वह आँख के सामने है। इन देशों में किसी समय प्रतिभा का जरूर वास था।