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तीसरा अध्याय।

मन से उस राय के खिलाफ बर्ताव करने का खयाल तक दूर होता जाता है। जैसे जैसे ये बातें होती जाती हैं वैसे ही वैसे समाज की राय के खिलाफ बर्ताव करनेवालों का सामाजिक आधार भी कम होता जाता है; अर्थात् जनसमूह को न बढ़ने देने की इच्छा रखनेवाला, और अपनी मति और प्रवृत्ति के प्रतिकूल बर्ताव करनेवालों को आश्रय देनेवाला, प्रभाव या बल, जो अब तक समाज में था, नाश हो रहा है।

ये सब कारण मिलकर व्यक्ति-विशेषता का इतना अधिक विरोध करते हैं—उससे इतनी अधिक प्रतिकूलता करते हैं—कि यह बात समझ ही में नहीं आती कि किस तरह वह अपनी जगह पर कायम रह सकती है या किस तरह वह नष्ट होने से बच सकती है। समाज के समझदार आदमियों को व्यक्ति-विलक्षणता की कीमत जब तक अच्छी तरह न समझा दी जायगी, अर्थात् यदि उनके मन में यह बात न भर दी जायगी कि भिन्नता का होना बहुत अच्छा है—चाहे भिन्नता से कोई लाभ न हो; चाहे उससे उनकी समझ में हानि भी हो—तब तक बेचारी व्यक्ति-विशेषता नाश होने से न बचेगी; तब तक उसे अपनी जगह पर कायम रहने के लिए और भी अधिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा। यदि किसी व्यक्ति को, यदि किसी आदमी को, अपना हक या स्वत्त्व स्थापित करना हो तो उसे अभी करना चाहिए। इस काम के लिए यही उचित समय है। क्योंकि सब लोगों को एक ही सांचे में ढालने का प्रयत्न इस समय समाज कर रहा है वह अभी पूरा नहीं हुआ—अभी उसमें दृढ़ता नहीं आई। व्यक्ति-विशेषता पर समाज की जो यह जबरदस्ती हो रही है उससे मल्लयुद्ध करने के लिए शुरू में ही तैयार होना चाहिए। तभी कामयाबी की जा सकती है। आदमियों की यह सख्ती कि जिस तरह का बर्ताव हम करते हैं उसी तरह का सब लोगों को करना चाहिए, जितनी अधिक सहन की जायगी उतनी ही अधिक वह रहेगी। सब लोगों के आचार, विचार और व्यवहार जब प्रायः एक से हो जायेंगे तब यदि उस अन्याय का विरोध किया जायगा तो लोगों को वह विरोध अधार्मिक, अनीति-सङ्गत, प्रकृति-विरुद्ध ही नहीं, पैशाचिक तक मालूम होने लगेगा। अर्थात् जब सब के आचार और व्यवहार के नमूने एक से हो जायेंगे तब जो लोग उन नमूनों से जरा भी इधर उधर हटेंगे वे धर्म्महीन

स्वा॰–१०