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स्वाधीनता।


वाले गुणों का उपदेश देने में पहले ही तरीके को काम में लाना चाहिए। भले-बुरे को पहचानने और बुरे को छोड़ कर भले का स्वीकार करने, के लिए आदमियों का यह कर्तव्य है कि वे परस्पर एक दूसरे की मदद करें। आदमियों का यह धर्म है कि, वे परस्पर एक दूसरे को यह उत्तेजना देते रहें कि अपने उच्च गुणों से अधिक काम लेना चाहिए, अपने विचारों और उद्देशों को बुरे और नीच विषयों की तरफ न जाने देना चाहिए, और अपने मन में किसी तरह की बुरी वासनाओं को न आने देना चाहिए। उनको चाहिए कि वे परस्पर यह उपदेश दें कि आदमी को अपने विचार और उद्देश हमेशा उदार और अच्छे कामों ही की तरफ लेजाना चाहिए; और जो वासनायें मन में पैदा हों उनको भी अच्छे और उदार कामों और विचारों की तरफ झुकाना चाहिए। परन्तु एक अथवा अनेक आदमियों को किसी दूसरे वयस्क आदमी से यह कहने का मजाज नहीं कि अपने लाभ के लिए अपने शरीर या जीवन का वह जैसा चाहे वैसा उपयोग न करने पावेगा। क्योंकि अपने हित―अपने लाभ―की सबसे अधिक परवा अपने ही को होती है! जहां बहुत ही अधिक प्रीति होती है वहां की बात छोड़ कर और सब कहीं अपने हित के लिए और लोग जितनी परवा करते हैं वह अपनी निज की परवा की अपेक्षा बहुत हो कम होती है। दूसरों से सम्बन्ध रखनेवाले बर्ताव को छोड़ कर अलग अलग हर आदमी में समाज का जो अंश रहता है वह नाम मात्र ही के लिए रहता है और बिलकुल ही अप्रत्यक्ष होता है―अर्थात् बाहर से देख ही नहीं पड़ता। परन्तु अपने मनोविकार और अपनी स्थिति को जानने के लिए एक बहुत ही मामूली समझ के पुरुप या स्त्री के पास जो साधन होते हैं वे; उनको जानने के लिए, दूसरे आदमियों के साधनों की अपेक्षा कहीं चढ़ कर होते हैं। अपने निज के काम काज के विषय में किसी की राय या इरादे में समाज यदि हाथ डालेगा तो सिर्फ अनुमान के आधार पर डालेगा―अर्थात् एसी दशा में जो कुछ समाज करेगा सिर्फ अटकल के बल पर करेगा। मुमकिन है इस तरह की अटकल बिलकुल ही गलत हो। और यदि वह सही भी हो तो मुमकिन है कि उसका जितना सदुपयोग किसीको हो उतना ही दुरुपयोग भी हो। क्योंकि समाज का सुधार करने- वाले जो लोग इस तरह की अटकल का उपयोग करेंगे, वे सिर्फ बाहर ही की बातों को जानकर करेंगे। वे उनको उतना ही जान सकेंगे जितना और