पृष्ठ:स्वाधीनता.djvu/१८३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१५३
स्वाधीनता।


में नाम मात्र ही के लिये फरक है। चाहे कोई आदमी हमको उन बातों के विषय में अप्रसन्न करे जिनमें दखल देना हम अपना हक समझते हैं, और चाहे उन बातों के विषय में जिनमें दखल देना हम अपना हक नहीं समझते, दोनों में फरक जरूर है और बहुत अधिकार फरक है। वह फरक हमारे मनोविकारोंमें होता है और ऐसे आदमी की तरफ हमारा जो कर्तव्य है उसमें भी होता है। यदि किसी आदमी ने हमको किसी ऐसी बात से अप्रसन्न किया जिसका सम्बन्ध सिर्फ उसीसे है, तो हम अपनी अप्रसन्नता जाहिर करेंगे और जैसे उस अप्रसन्नतादायक बात से हम दूर रहेंगे वैसे ही उस आदमी से भी दूर रहेंगे। परन्तु इस बात के कारण हम उसे किसी तरह की तकलीफ पहुँचाना मुनासिब न समझेंगे। हमको उस समय यह खयाल होगा कि इसने जो भूल की है उसका पूरा फल यह भोग ही रहा है, अथवा यदि नहीं भोग रहा है तो कुछ दिनमें जरूर भोगेगा। यदि अव्यवस्था, अर्थात् बदइन्तजामी, के कारण वह अपनी जिन्दगी को खराब कर रहा होगा तो उसे देखकर हमारा जी कभी न चाहेगा कि हम उसे और भी अधिक हानि पहुंचावे और उसकी जिन्दगी को और भी अधिक खराब कर दें। उसे सजा देने की अपेक्षा यह जी चाहेगा कि जो सजा उसे मिल रही है उसे उलटा हम कम करने की कोशिश करें और उसकी बुरी आदतों से जो आपदायें उस पर आई हैं उनसे बचने की तरकीब उसे बतावें। उस पर दया आवेगी; उससे घृणा होगी; उसके पास बैठने या उससे बात चीत करने को जी न चाहेगा; परन्तु उस पर क्रोध न आवेगा और न उससे द्रोह करने ही को दिल गवाही देगा। उसे हम समाज का शत्रु न समझेंगे। अर्थात् समाज के शत्रुओं के साथ जैसा बर्ताव किया जाता है वैसा बर्ताव हम उसके साथ न करेंगे। और यदि उदार-भाव धारण करके हमने उसकी सहायता न की, या उसके हानि-लाभ का विचार न किया, तो भी जिस रास्ते वह जा रहा है उस रास्ते उसे चले जाने देंगे। हम सिर्फ तटस्थ रहेंगे। बस इतना ही करेंगे। इसके आगे हम और कुछ न करेंगे। हम उसके लिए यही सजा सब से कड़ी समझेंगे। परन्तु यदि उसी आदमी ने उन नियमो को भङ्ग किया―उन कायदों को तोड़ा―जो समाज की, या जिन आदमियों से समाज बना है उनमें से किसीकी, रक्षा के लिए बने हैं तो बात बिलकुल ही दूसरी तरह की हो जायगी; तो मामला बहुत सङ्गीन हो जायगा। इस