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चौथा अध्याय ।

दशा में उसके दुराचार, उसके दुष्कृत्य, उसके बुरे बर्ताव का फल उसको नहीं किन्तु औरों को भोग करना पड़ेगा। इससे जिन लोगों के मेल से समाज बना है उन सबका रक्षक होने के कारण समाज को उससे बदला लेना पड़ेगा, और उस दण्ड को यथेष्ट कड़ा करने के लिए होशियार भी होता पड़ेगा । इस दशा में उस आदमी को हमारे, अर्थात् समाज के, इजलास में अपराधी की तरह हाजिर होना पड़ेगा। उस समय हमारा सिर्फ इतना ही कर्तव्य न होगा कि हम उसके अपराध का विचार करके अपना फैसला सुना दें। नहीं, अपने फैसले के अनुसार, चाहे जिस तरह से हो, उसे दंड देना भी हमारा कर्तव्य होगा। परन्तु यदि उसके दुष्कृत्य या बुरे बर्ताव का सम्बन्ध सिर्फ उसीसे है तो उसे किसी तरह की तकलीफ पहुँचाना-उसे किसी तरह का दंड देना हमारा कर्तव्य नहीं। हां यदि हमने अपने निज के काम में किसी ऐसी स्वतंत्रता का उपयोग किया, जिसे उपयोग में लाने का उसे भी हमारा ही सा हक है, और यदि ऐसा करने से सहज ही उसकी नछ हानि होगई तो उपाय नहीं। इसमें हमारा क्या दोप?

आदमी के आत्म-सम्बन्धीय वर्ताव और सामाजिक बर्ताव में जो फरक मैंने यहां पर दिखलाया उसे बहुत लोग न मानेंगे। वे यह सवाल करेंगे कि जिन आदमियों से समाज बना है उसमें से एक आदमी के बर्ताव का कोई हिस्सा दूसरे आदामयोंसे सम्बन्ध-हीन हो कैसे सकता है ? अर्थात् यह सम्भव नहीं कि एक ही समाज के एक आदमी का वर्ताव उसी समाज के और आदार्मयों से कुछ भी सम्बन्ध न रक्खे । ऐसा एक भी आदमी नहीं जो दूसरों से बिलकुल ही अलग हो । यह कभी सम्भव नहीं कि कोई आदमी अपना बहुत सा नुकसान कर ले, या कोई ऐसा काम कर डाले जिसके कारण उसका रोज नुकसान होता रहे, और उससे उसके बहुत निकट के सम्ब- धियों की, और कभी कभी सम्बन्धियों के सिवा और लोगों की भी, कोई हानि न हो । यदि वह अपनी सम्पत्ति को दरवाद कर देगा तो प्रत्यक्ष या अप्र- त्यक्ष रीति से जिन लोगों को उससे मदद मिलती रही होगी उनकी जरूर हानि होगी। इस तरह की हानि से समाज के निर्वाह के जो साधन हैं उन- संशोसीहत की जहर आ जायगी। यदि वह अपनी शारीरिक अथवा मासिक शक्तियों को बिगाड़ देगा तो सिर्फ उन्हीं लोगों की हानि न होगी जिन सुसपी घोड़ी भी सामग्री उसके ऊपर अवलंबित है किन्तु अपने