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स्वाधीनता।


सजातियों के हित के लिए मामूली तौर पर उसके जो कर्तव्य हैं उनको करने के लिए भी वह अपने को नालायक बना लेगा। सम्भब है कि उसे अपने पालन पोपण का बोझ दूसरे लोगों की उदारता या स्नेहशीलता पर लादना पड़े―अर्थात् दूसरों का भिखारी बनना पड़े। यदि इस तरह के घटनायें बारबार होने लगेंगी तो जनसमुदाय के सुखसंचय को इतनी हानि होगी जितनी आज कल होने वाले और किसी बुरे बर्ताव या अपराध से नहीं होती। यदि कोई आदमी अपने दुराचरण या मूर्खता से दूसरों को प्रत्यक्ष रीति पर हानि न भी पहुँँचावे तो भी उसका उदाहरण जरूर अनिष्ट कारक होगा। बहुत सम्भव है कि उसके बुरे बर्ताव को देखकर और लोग भी वैसा ही बर्ताव करने लगें। अतएव, उसके खराब चालचलन को देख कर या दूसरोंसे उसका बयान सुन कर, और लोगों को नीतिभ्रष्ट और कुमार्ग गामी होने से बचाने के लिए उसका जरूर प्रतिबन्ध करना चाहिए। अर्थात अपना चाल-चलन सुधारने के लिए उसे जरूर मजबूर करना चाहिए।

बहुत लोग यह भी कहेंगे कि यदि बुरे चाल-चलन का फल सिर्फ दुःशील, दुराचारी या विवेकहीन आदमी ही को भोगना पड़े तो क्या जो लोग अपना चाल-चलन खुद नहीं दुरुस्त कर सकते उनको समाज वैसे ही पड़ा रहने दे? क्या समाज ऐसे आदमियों की रक्षा न करे? बच्चों और नाबालिग आदमियों की रक्षा करना―उन्हें बुरे कामों से बचाना―सब को कुबूल है। इसमें कोई विवाद नहीं। तो बालिग होकर भी जो लोग खुद अपनी रक्षा नहीं कर सकते उनकी रक्षा करना―उन्हें सुमार्ग में लगाना―क्या समाज का काम नहीं? जुवा खेलना, शराब पीना, व्यभिचार करना, निरुद्योगी बैठे रहना, शरीर और कपड़े-लत्ते मैले रखना इत्यादि दोष उन बहुत से दोषों ही की तरह सुख का नाश करनेवाले और उन्नति में बाधा डालनेवाले हैं जिनकी कानून में मनाई है। तो, फिर, कानून के द्वारा ऐसी बातों के रोकने का यत्न क्यों न किया जाय? हां, इतना जरूर देख लेना होगा कि कानून से काम लेने में समाज को किसी तरह का असुभीता तो न होगा और अपोक्षत बातों का प्रतिबन्ध करने में कोई कठिनता तो न आवेगी, अर्थात् सिर्फ काम की सुगमता और समाज के सुभीते का विचार करना पड़ेगा। कानून के द्वारा यदि ये बुरी बातें नहीं रोकी जा सकतीं तो क्या कानून की अनिवार्य कमी को पूरा करने के लिए समाज का यह काम नहीं कि वह