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चौथा अध्याय।

दूसरों के हित की तरफ ध्यान न दिया होगा उस कारण के लिए भी उसकी निन्दा करना मुनासिब न होगा। और, निजकी जिन बातों की प्रेरणा से उसने इस तरह की गलती की होगी उनके लिए भी उसे निन्दा के रूप में दंड देना उचित न होगा। इसी तरह यदि कोई आदमी अपने निजके बर्ताव से अपनेको किसी ऐसे सार्वजनिक काम करने के अयोग्य कर लेता है, जिसे करना उसका धर्म्म है, तो वह समाज की दृष्टि में अपराधी, अतएव दंड पाने का पात्र, हो जाता है। शराब पीकर मत्त होने के लिए किसी को सजा देना मुनासिब नहीं। पर यदि पुलिस या फौज का कोई जवान शराब पीकर, सरकारी काम करते समय, मतवाला हो जाय तो उसे जरूर सजा मिलनी चाहिए। सारांश यह कि जिस काम से किसी व्यक्ति या समाज की कोई निश्चित हानि होती है, या हानि होने का निश्चित डर रहता है, वह काम व्यक्ति-विषयक स्वाधीनता की हद के बाहर चला जाता है और कानून या नीति की हद के भीतर आजाता है। अर्थात् ऐसे काम का प्रतिबन्ध कानून या नीति के द्वारा होना चाहिए और उसके करनेवाले को कानून या नीति के ही द्वारा सजा मिलनी चाहिए।

परन्तु बहुत से काम ऐसे भी हैं जिनसे न तो कोई सार्वजनिक कर्तव्य बिगड़ता है और न, करनेवाले को छोड़कर, औरों की कोई प्रत्यक्ष हानि ही होती है। इस तरह के बर्ताव से—इस तरह के काम से—यदि भीतर ही भीतर समाज की कोई हानि, अप्रत्यक्ष रीति से, हो जाय तो समाज को चाहिए कि हर आदमी को दी गई स्वाधीनता से होनेवाले अधिक हित के विचार से वह उतनी हानि या तकलीफ बरदाश्त करे। वयस्क, अर्थात् बालिग, आदमियों को अपनी रक्षा न करने के लिए—अपने आत्म-सम्बन्धी कर्तव्यों की तरफ नजर न रखने के लिए—यदि दण्ड देने की जरूरत ही आपड़े, तो, मेरी राय में, इस तरह का दण्ड उन्हीं के फायदे के लिए देना चाहिए। जिन बातों के कराने का हक समाज को नहीं है, अथवा जिन बातों के कराने के विषय में समाज ने अपना हक नहीं जाहिर किया है, उनको करने के लायक अपनेको न रखने के बहाने ऐसे आदमियों को सजा देना मुनासिब नहीं। पर, सच पूछिए तो मुझे यह दलील ही कुबूल नहीं कि जो लोग मतलब भर के लिए ज्ञान नहीं रखते उनको उचित शिक्षा देकर व्यवहार-सम्बन्धी साधारण सज्ञान दशा को पहुँचाने के लिए समाज के पास कोई

स्वा॰—११