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स्वाधीनता।


साधन ही नहीं है। अतएव समाज को तब तक ठहरना चाहिए जब तक किसी आदमी से कोई गलती न हो। और जब गलती नजर में आजाय तब गलती करनेवाले को नीति या कानून की दृष्टि से समाज सजा दे। यह भी कोई दलील है? स्वाधीनतापूर्वक व्यवहार करने के योग्य उम्र होने के पहले भी सब आदमियों पर समाज की पूरी सत्ता रहती है। लड़कपन का सारा समय, और लड़कपन और वालिग होने के बीच का भी सारा समय, समाज के हाथ में रहता है। फिर, समाज इस दरमियान में क्यों न यह देख ले कि सब लोग बड़े होने पर उचित बर्ताव करने भर के लिए समझदार होंगे या नहीं? वर्तमान समय के आदमी अगली पुश्तवालों की शिक्षा के भी मालिक होते हैं और उनकी सब स्थितियों, अर्थात् अवस्थाओं, के भी मालिक होते हैं। सदाचरणशीलता और बुद्धिमानी आदि गुणों में आज कल के आदमी खुद ही बहुत पीछे हैं। तब वे किस तरह अगली पुश्तवालों को पूरे तौर पर सदाचारपरायण और बुद्धिमान बना सकेंगे? फिर यह भी नहीं कि अगली पुश्त को सुशिक्षित करने के लिए वे लोग जो उत्तम से उत्तम प्रयत्न करते हैं हमेशा सफल ही होते हों। कभी होते हैं, कभी नहीं होते। परन्तु एक बात निःसन्देह है। वह यह कि आज कल जो समाज अपनी सत्ता चला रहा है वह अगली पुश्त को अपने ही बराबर, अथवा अपने से कुछ अधिक, अच्छी करने की शक्ति जरूर रखता है। नादान बच्चे आगे की बातों का विचार करके युक्तिपूर्ण बर्ताव करने की शक्ति नहीं रखते। यदि समाज, जिन आदमियों से वह बना है उन में से बहुतों को, अज्ञान बच्चों की तरह बढ़ने दे, अर्थात् शिक्षा के द्वारा उनके ज्ञान को बढ़ाने का यत्न न करे, तो इसमें अपराध किसका है? खुद समाज ही का न? अतएव इस दुर्व्यवस्था का फल भा उसी को भोग करना पड़ेगा। लोगों को शिक्षा देने के लिए जितने साधनों की जरूरत रहती है वे सब समाज के हाथ में हैं। इतना ही नहीं, किन्तु जो लोग अपने हिताहित का विचार खुद नहीं कर सकते उनके ऊपर हुकुमत करनेवाली रूढ़, अर्थात् प्रचलित, बितों की सत्ता की डोरी भी समाज ही के हाथ में रहती है। फिर, जब कोई किसी तरह का दुराचार करता है तब उसकी जान-पहचान वाले उसे निन्दा, निर्भत्सना, तिरस्कार या धिक्कार के रूप में जरूर दण्ड देते हैं। इस स्वाभाविक या अनिवार्य दण्ड से वह नहीं बच सकता। यह दण्ड-दान भी, अपना काम अच्छी तरह करने