पृष्ठ:स्वाधीनता.djvu/१९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।


मिल के ग्रन्थों में स्वाधीनता, उपयोगितातत्त्व, तर्कशानपद्धति और नियों की पराधीनता-इन चार ग्रन्थों का बड़ा मान है। इन पुस्तकों में मिल ने जिन विचारों से-जिन दलीलों से-काम लिया है वे बहुत प्रवल और अखण्डनीय हैं। ये ग्रन्थ सब कहीं प्रीतिपूर्वक पढ़े जाते हैं। स्वाधीनता में मिल ने जिन सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है वे बहुत ही दृढ़ प्रमाणों के आधार पर स्थित हैं। यह बात इस पुस्तक को पढ़ने से अच्छी तरह मालूम हो जायगी। इस पुस्तक में पांच अध्याय हैं। उनकी विषय-योजना इस प्रकार है---

पहला अध्याय-प्रस्तावना।

दूसरा--अध्याय-विचार और विवेचना की स्वाधीनता।

तीसरा--अध्याय-व्यक्ति-विशेषता भी सुख का एक साधन है।

चौथा--अध्याय-व्यक्ति पर समाज के अधिकार की सीमा।

पांचवां--अध्याय-प्रयोग।

मिल साहब का मत है कि व्यक्ति के बिना समाज या गवर्नमेंट का काम नहीं चल सकता और समाज या गवर्नमेंट के बिना व्यक्ति का काम नहीं चल सकता। अतएव दोनों को परस्पर एक दूसरे की आकांक्षा है। पर एक को दूसरे के काम में अनुचित हस्तक्षेप करना मुनासिब नहीं। जिस काम से किसी दूसरे का सम्बन्ध नहीं उसे करने के लिए हर आदमी स्वाधीन है। न उसमें समाज ही को कोई दस्तन्दाजी करना चाहिए और न गवर्नमेंट ही को। पर, हां, उस काम से किसी और आदमी का अहित न होना चाहिए। ग्रन्थकार ने स्वाधीनता के सिद्धान्तों का प्रतिपादन बड़ी ही योग्यता से किया है। उसकी विवेचना शक्ति की जितनी प्रशंसा की जाय कम है। उसने प्रतिपक्षियों के आक्षेपों का बहुत ही मजबूत दलीलों से खण्डन किया है। उसकी तर्कनाप्रणाली खूब सबल और प्रमाणपूर्ण है।

स्वाधीनता का दूसरा अध्याय सव अध्यायों से अधिक महत्त्व का है इसीसे वह औरों से बड़ा भी है। इस अध्याय में जो बातें हैं उनको जानने की आजकल बड़ी ही जरूरत है। आदमी का सुख विशेष करके उसकी मानसिक स्थिति पर अवलम्बित रहता है। मानसिक स्थिति अच्छी न होने से सुख की आशा करना दुराशा मात्र है। विचार और विवेचना करना मन का धर्म है। अतएव उनके द्वारा मन को उन्नत करना चाहिए। मनुष्य के लिए सब से