पृष्ठ:स्वाधीनता.djvu/२०

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अधिक अनर्थकारक बात विचार और विवेचना का प्रतिबन्ध है। जिसे जैसे विचार सूझ पड़ें उसे उन्हें साफ साफ कहने देना चाहिए। परन्तु वे विचार राज्य क्रान्ति उत्पन्न करनेवाले न हों। इसीसे, जितने सभ्य देश है, उनकी गवर्नमेंटों ने सब लोगों को यथेच्छ विचार, विवेचना और आलोचना करने की अनुमति दे रक्खी है। इसी में मनुष्य का कल्याण है। कल्पना कीजिए कि किसी विषय में कोई आदमी अपनी राय देना चाहता है और उसकी राय ठीक है। अब यदि उसे बोलने की अनुमति न दी जायगी तो सब लोग उस अच्छी बात को जानने से वञ्चित रहेंगे। यदि वह बात या राय सर्वथा सच नहीं है, केवल उसका कुछ ही अंश सच है, तो भी यदि वह प्रकट न की जायगी तो उस सत्यांश से भी लोग लाभ न उठा सकेंगे। अच्छा अब मान लीजिए कि कोई पुराना ही मत ठीक है, नया मत ठीक नहीं। इस हालत में भी यदि नया मत प्रकट न किया जायगा तो पुराने की खूबियां लोगों की समझ में अच्छी तरह न आवेंगी। दोनों के गुण-दोषों पर जब अच्छी तरह विचार होगा तभी यह वात ध्यान में आवेगी; अन्यथा नहीं। एक बात और भी है। वह यह कि प्रचलित, रूढ़ या परम्परा से प्राप्त हुई बातों या रस्मों के विषय में प्रतिपक्षियों के साथ वाद-विवाद न करने से उनकी सजीवता जाती रहती है। उनका प्रभाव धीरे धीरे मन्द पड़ जाता है। इसका फल यह होता है कि कुछ दिनों में लोग उनके मतलब को बिलकुल ही भूल जाते हैं और सिर्फ पुरानी लकीर को पीटा करते हैं।

मिल की मूल पुस्तक की भाषा बहुत क्लिष्ट है। कोई कोई वाक्य प्रायः एक एक पृष्ठ में समाप्त हुए हैं। विषय भी पुस्तक का क्लिष्ट है। इससे इस अनुवाद में हमें कठिनता का सामना करना पड़ा है। हमको डर है कि हमसे अनुवाद-सम्बन्धी अनेक भूलें हुई होंगी। अतएव हमको उचित था कि हम ऐसे कठिन काम में हाथ न डालते। पर जिन बातों का विचार इस पुस्तक में है उनको जानने की बड़ी आवश्यकता है। अतएव मिल साहब के विचारों का बोधक जब तक कोई सर्वथा निर्दोष अनुवाद न प्रकाशित हो तव तक इसका जितना भाग निर्दोष या पढ़ने के लायक हो उतनेही से पढ़नेवाले स्वाधीनता के सिद्धान्तों और लाभों से जानकारी प्राप्त करें।

यदि कोई यह कहे कि हिन्दी के साहित्य का मैदान बिलकुल ही सूना पड़ा है तो उसके कहने को अत्युक्ति न समझना चाहिए। दस पाँच किस्से,