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स्वाधीनता।

के सच होने की सम्भावना अधिक है। आज कल लोगों का यह खयाल दिनों दिन जोर पकड़ता जाता है कि समाज की रचना या बनावट सब लोगों की सम्मति से होनी चाहिए। मतलब यह कि समाज लोकसम्मत हो; फिर चाहे उसके साथ राज्यव्यवस्था लोकसम्मत हो चाहे न हो। जहां पर यह बात पूरे तौर पर पाई जाती है ऐसा देश अमेरिका है। वहां राज्यव्यवस्था भी लोकसम्मत है और समाज भी लोकसम्मत है। लोग विश्वासपूर्वक कहते हैं कि यदि वहां कोई बहुत अधिक अमीरी ठाठ से रहता है—यहां तक अधिक कि कोई उसकी बराबरी न कर सके—तो लोगों को बहुत बुरा लगता है और वे उसे उस हालत में देखना बरदास्त नहीं कर सकते। उन लोगों के इस तरह के मनोंविकारों का असर वैसा ही होता है जैसा कि खर्च के विषय में बने हुए किसी कानून का असर होता हो। कहीं कहीं तो यहां तक नौबत पहुँची है कि जिन लोगों की आमद बहुत अधिक है, अर्थात् जो बहुत बड़े अमीर आदमी हैं, वे इस मुशकिल में पड़े हैं कि किस तरह वे अपने रुपये को खर्च करें जिसमें रुपया भी अच्छे काम में लगे और लोग नाखुश भी न हों। इस वर्णन में—इस बात में—अतिशयोक्ति हो सकती है। इस में सन्देह नहीं कि लोगों ने बात को बहुत बढ़ा दिया है; परन्तु जहां सभी बातों को लोकसम्मत करने की तरफ लोगों की प्रवृत्ति बेतरह बढ़ रही है; जहां लोग यह चाहते हैं कि सब तरह के अधिकार लोकसम्मति पर ही अवलम्बित रहें, जहां यह कल्पना दिनोंदिन बढ़ती जाती है कि हर आदमी को; खुद उसकी भी आमदनी के खर्च करने का तरीका बतलाना समाज का काम है—वहां इस तरह की बातों का होना सम्भव और समझ में आने लायक ही नहीं; किन्तु बहुत अच्छी तरह होने लायक है। योरप में कोई दो सौ वर्ष से एक नया पन्थ निकला है। इस पन्थ के अनुयायियों का नाम सोशियालिस्ट है। इनका सिद्धान्त यह है कि संसार में जो कुछ है उस पर सब का बराबर हक है। ये लोग अमीर, गरीब और राजा, प्रजा सबको एक सा कर देना चाहते हैं। इन लोगों के पन्थ की दिनोंदिन बढ़ती हो रही है। यदि वह इसी तरह होती रही तो, कुछ दिन बाद, बहुत आदमियों की नजर में, कुछ थोड़े से रुपये की अपेक्षा अधिक धनवान् होना या हाथ से कमाकर प्राप्त की हुई सम्पत्ति के सिवा और किसी तरह की सम्पत्ति का उपभोग करना, बहुत बड़े कलङ्क या अपयश की बात