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स्वाधीनता ।

की मेहनत अकारथ जाने, या दूसरों की आशा का नाश होने ही से होता है। पर, यह बात सब को मान्य है कि इस तरह के परिणाम की परवा न करके अपने उद्देश की सिद्धि करना ही मनुष्य मात्र के लिए हितकारक है। मतलब यह कि समाज इस बात को नहीं कुबूल करता कि इस तरह चढ़ा- ऊपरी करनेवालों में से जिनका नुकसान हो जाय उनको उस नुकसान से बचाने का प्रबन्ध न करना कानून या नीति की दृष्टि से अनुचित है। हां , यदि अपने फायदे के लिए अपने उद्देश की सिद्धि के लिए---कोई आदमी छल, कपट, विश्वासघात या जबरदस्ती करने लगे तो उसे रोकनेका प्रबन्ध समाज जरूर करेगा। क्योंकि ऐसे साधनों से अपना फायदा कर लेना मानो सब लोगों के साधारण हित में बाधा डालना है।

व्यापार एक सामाजिक व्यवसाय है। जो आदमी सर्व साधारण से किसी चीज के वेचने की प्रतिज्ञा करता है वह एक ऐसा काम करता है जिससे और लोगों के, और साधारण रीति पर सारे समाज के, हिताहित से सम्बन्ध रहता है । अतएव यदि तत्त्वदृष्टि से देखा जाय तो उसका व्यवसाय समाज के अधिकार में आ जाता है; अर्थात् उसके व्यवसाय और बर्ताव पर समाज की सत्ता पहुँच जाती है । इसी आधार पर एक दफे लोगों ने यह निश्चय किया था कि जितनी चीजें अधिक काम की हैं उनकी कीमत ठहराना और उनके बनाने की रीति के नियम भी जारी करना सरकार का कर्तव्य है। परन्तु बहुत दिनों तक झगड़ा होने के बाद अब यह बात लोगों के ध्यान में अच्छी तरह आगई है कि विक्री के लिए माल बनाने, बेचने और मोल लेनेवाले को पूरी स्वतंत्रता.देने ही से सस्ता और अच्छा माल मिल सकता है। यदि मोल लेनेवाले को इस बात की आजादी रहेगी कि जहां उसका जी चाहे वहां वह खरीद करे तो माल बनाने और बेचनेवाले जरूर अच्छा माल रक्खेंगे और उसे सस्ता भी वेचेंगे क्योंकि उनको यह डर रहेगा कि यदि उनका माल अच्छा न होगा, या यदि वे उसे महंगा बेचेंगे, तो लेनेवाला उनके यहां खरीदेगा क्यों ?::उसे जो कुछ दरकार होगा वह दूसरे से ले लेगा। इसीका नाम व्यापार-स्वातंत्र्य अथवा अनिर्बन्ध व्यापार है। इस पुस्तक में हर व्यक्ति की - हर आदमी की-स्वाधीनता के सम्बन्ध में जो सिद्धान्त मैंने निश्चित किये हैं उनके प्रमाण यद्यपि अनिर्बन्ध व्यापार से सम्बन्ध रखने वाले सिद्धान्तों के प्रमाणों से जुदा है, तथापि इन दोनों तरह के प्रमाणों का