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स्वाधीनता।

जो लोग तत्त्वविद्या सीखते हैं उनके लिए लाक[१] और कांती[२] (Kant) इन दोनों के सिद्धान्तों को जान कर उनमें पास हो जाना हित ही की बात है अहित की नहीं। इस विषय में इस बात की बिलकुल परवा न करना चाहिए कि इनमें से किसी के मत से पढ़नेवाले का मत मिलता है या नहीं। विद्यार्थी का मत चाहे इनमें से किसी के मत से मिले, चाहे न मिले, लाभ उसे जरूर होगा और बहुत होगा। मेरा तो मत यह है कि क्रिश्चियन धर्म्म के प्रमाणों या तत्त्वों में यदि किसी नास्तिक की परीक्षा ली जाय तो भी अनुचित नहीं तो भी इस बात के प्रतिकूल कोई मुनासिब दलील नहीं पेश की जा सकती। पर, हां, इस बात को स्वीकार करने के लिए लाचार नहीं करना चाहिए कि क्रिश्चियन लोगों के धर्म्म-तत्त्वों पर मेरा विश्वास है। मेरी समझ में ऊंचे दरजे की परीक्षायें विद्यार्थी की मरजी पर छोड़ देना चाहिए। यदि उसकी खुशी हो तो वह इस तरह की परीक्षायें दे और यदि न हो तो न दे। जितने रोजगार—जितने उद्योग हैं उनके विषय की शिक्षा देने में गवर्नमेण्ट को दस्तंदाजी न करना चाहिए। अध्यापकी का काम करने की इच्छा रखनेवालों की शिक्षा में भी उसे बाधा न डालनी चाहिए। यदि गवर्नमेण्ट यह नियम कर दे कि इस पेशे के लोगों को अमुक दरजे तक पढ़ना ही चाहिए तो परिणाम


  1. लाक नाम का एक महा विद्वान् तत्त्वज्ञ सत्रहवीं सदी में हो गया है। उसका जन्म इंगलैंड में हुआ था। अनुभव के सम्बन्ध में उसने अनेक ग्रन्थ लिखे हैं। उसके सारे ग्रन्थ प्रायः तत्त्व-शास्त्र पर हैं। वह बहुत बड़ा दार्शनिक पंडित था। कल्पनाओं का संयोग किसे कहते हैं, मानुषी बुद्धि क्या चीज है, ज्ञान की मर्य्यादा क्या है, भाषा की प्रभुता ज्ञान पर कैसी और कितनी होनी चाहिए, इन्हीं विषयों पर उसने बड़े बड़े ग्रन्थ लिखे हैं।
  2. कान्ती जर्मनी का प्रसिद्ध तत्त्ववेत्ता है। उसका जन्म १७२४ में हुआ था और मरण १८०४ में। पहले उसने ज्योतिःशास्त्र, यंत्रशास्त्र और पदार्थ-विद्या पर ग्रन्थ लिखे। इसके बाद उसने अध्यात्मविद्या का अध्ययन किया और उसी विषय के ग्रन्थ लिखे। विचार-शक्ति के ऊपर उसके ग्रन्थ बहुत प्रसिद्ध हैं। पहले योरप में तत्त्वशास्त्र के आधार धर्म्मवाक्य थे। पर कांती के ग्रन्थ देखकर लोगों की श्रद्धा वैसे तत्त्वशान से हट गई। तब से विचारशक्ति के आधार पर बने हुए तत्त्वशास्त्र की महिमा बढ़ी।