पृष्ठ:स्वाधीनता.djvu/२५

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में यह बात आजायगी कि अपनी निन्दाके प्रकाशन को—चाहे वह निन्दा व्यर्थ हो चाहे अव्यर्थ—रोकने की चेष्टा करना मानों इस बात का सबूत देना है कि वह निन्दा झूठ नहीं, बिलकुल सच है। व्यर्थ निन्दा के असर को दूर करने का एक मात्र उपाय यह है कि जब निन्दा प्रकाशित हो ले तब उसका सप्रमाण खण्डन किया जाय, और दोनों पक्षों के वक्तव्य का फैसला सर्वसाधारण की रायपर छोड़ दिया जाय। ऐसे विषयों में जन-समुदाय ही जजका काम कर सकता है। उसीकी राय मान्य हो सकती है। जो इस उपाय का अवलम्बन नहीं करते, जो ऐसी बातों को जन-समूह की राय पर नहीं छोड़ देते, जो अपने मुकद्दमेके आप ही जज बनना चाहते हैं उनके तुच्छ, हेय और उपेक्ष्य प्रलापों पर समझदार आदमी कभी ध्यान नहीं देते। ऐसे आदमी तब होशमें आते हैं जब अपने अहंमानी स्वभाव के कारण अपना सर्वनाश कर लेते हैं। ईश्वर इस तरह के आदमियोंसे समाज की रक्षा करे!

जुही, कानपुर, महावीरप्रसाद द्विवेदी।
१७ जून १९०५