पृष्ठ:स्वाधीनता.djvu/२७

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स्वाधीनता।

बातों की जो चर्चा हो रही है उससे इस विषय का बहुत ही घना सम्बन्ध है। मेरा अनुमान तो यह है कि कुछ दिनों में यही, अर्थात् सामाजिक स्वाधीनता का, विषय सब से बढ़कर समझा जायगा। इसीसे, खूब सोच समझ कर, इस पर कुछ लिखने की बड़ी जरूरत है।

यह कोई नया विषय नहीं है—यह कोई नई बात नहीं है। सच तो यह है कि बहुत पुराने जमाने से, इस विषय में लोगों का मतभेद चला आता है। एक दूसरे की राय आपस में नहीं मिलती आई है। परन्तु, संसार में, इस समय, जो लोग सब से अधिक सभ्य समझे जाते हैं; अर्थात् जिनमें शिक्षा, शिष्टता, सुधार या शाइस्तगी बहुत ऊंचे दरजे तक पहुँच गई है; उन में इस विषय ने एक नया ही रूप धारण किया है—एक नया ही रंग पकड़ा है। इसी से इस विषय को एक नये ढंग से बयान करने की जरूरत है। इसी लिए इसकी गंभीर गवेषणा, अर्थात् गहरी जाँच, की आवश्यकता है।

जहां तक हम लोग जानते हैं, संसार के सब से पुराने इतिहास में, इस विषय को लेकर, खूब झगड़े हुए हैं। अधिकार, अर्थात् समाज की सत्ता, और स्वाधीनता में खूब खैंचातान हुई है। ग्रीस, रोम और इँगलैंड के इतिहास में, यह बात, बहुत अच्छी तरह से देख पड़ती है। राजा और प्रजा में मेल नहीं रहा। राजा ने प्रजा की स्पर्धा की है और प्रजा ने राजा की। उस समय लोग स्वाधीनता का अर्थ बहुत व्यापक नहीं समझते थे। राजा के अन्याय से बचने ही को वे स्वाधीनता कहते थे। ग्रीस में, उस समय, कुछ ऐसे राज्य थे जिनमें प्रजा की ही प्रभुता थी। अर्थात् वे प्रजा-सत्तात्मक थे—प्रजा के ही प्रतिनिधि राज्य का सारा काम करते थे। ऐसे राज्यों को छोड़ कर और राज्यों के राजों को लोग प्रजा के पूरे विरोधी समझते थे। उस समय राज-सत्ता एक आदमी, एक जाति, या एक समुदाय के हाथ में थी। यह राज-सत्ता कभी किसी देश को जीतने पर मिलती थी और कभी वंश-परम्परा से प्राप्त होती थी। कुछ भी हो, यह बात जरूर थी कि देशवालों की इच्छा, या खुशी से यह सत्ता राजों को नहीं मिलती थी। पर, इस सत्ता या अधिकार को न मानने, या उसे छीन लेने, का साहस लोगों में न था। यह भी कह सकते हैं कि ऐसा करने के लिए उनमें शायद इच्छा ही न उत्पन्न होती थी। तथापि, इस बात का प्रयत्न वे अवश्य करते थे कि राजसत्ता से उनको, जहां तक हो सके, कम तकलीफ मिले। राजसत्ता का