पृष्ठ:स्वाधीनता.djvu/२७६

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मन्दिरों के अन्दर कितने भक्तों के हृदय में तेरी लगन की लपटें आज उठ रही हैं! मसजिदों के भीतर किस मजहवी मुसल्मान की आँख तेरे नूर से आज चमक रही है? सब कहने की बातें हैं, कहीं कुछ नहीं है। पड़ी किसे है, जो तेरे प्रेम का मस्त जोगी बनकर तेरे कूचे में अलख जगाने जाय। तो फिर ये मसजिदें, ये गिरजे और ये मठ-मन्दिर किस काम के? यह ख़ूब रही! काम के क्यों नहीं हैं―इन से बड़े-बड़े काम जो निकलते हैं। ये सब न हों, तो स्वार्थ-साधन की पराविद्या पढ़ने फिर हम कहाँ जायँ? धर्म का अर्थ 'सत्य' नहीं, 'स्वार्थ' है। मजहब का मतलब ‛ईमान‘ नहीं, बल्कि ‘मतलब’ है। मतलब बन गया, तो सब बन गया। धर्म एक गूढ़ रहस्य है, एक बड़ी आड़ है, एक अच्छा पर्दा है। वहाँ बैठकर चाहे जितने पाप किये जा सकते हैं। उस बस्ती में गुनाहों की छूट है। बुरे-से-बुरे कर्म हम चाहे जितने किये जायँ, बस धर्म की ओट लिये रहें। धर्म-संरक्षकों की राय में देव-द्वार पर की हुई हत्या भी हत्या नहीं है। वह तो वलिदान है, कुर्वानी है। वह हव्य जो है, हलाल जो है। क्या ही अनोखी सूझ है! एक धर्मात्मा कहता है, कि बलि-मांस ही भक्ष्य है, दूसरे का दावा है, कि कुर्बानी का ही गोश्त हलाल है, और तीसरे का कहना है, कि केवल झटके का ही मांस ग्राह्य है। बलि कहें, क़ुर्वानी कहें या झटका कहें, बेचारे जानवर की प्यारी जान तो गई।ज़वान-

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