पृष्ठ:स्वाधीनता.djvu/२७७

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ने कवाव-पुलाव के मज़े लिये और साथ ही धर्म की डूबती नैया भी पार लग गई! हम भी ख़ुश और हमारा ख़ुदा भी खुश। दोनों हाथ लड्डू! यह है हमारे धर्म का सचा अर्थ!

मजहब कैसा बढ़िया हाजमा है! इस पाचन की एक ही गोली से भारी-से-भारी अघ-अजीर्ण भस्म हो जाता है। केवल 'गंगा-गंगा' कह लेने से ही जन्म-जन्मान्तर का मैल कट जाता है! भगवन्! असल में तुझे हम दींदार मुक़दमेबाज़ एक घूसखोर 'जज' समझ बैठे हैं। धर्म की अदालत में हम पवित्र पापी तुझ से अपने मतलब का मनचाहा फैसला लिखा लेना चाहते हैं। कैसी विलक्षण भक्ति है हम भक्तराजों की!

अब तू ही बता दे, मेरे हृदय-नाथ, कि तेरे गहरे भाव-भेद का मस्त महरम मजहबी बस्ती में मुझे कहाँ मिलता? खूब देख चुका हूँ, खूब छान चुका हूँ―नये-पुराने मजहबों की सुनहरी प्यारी प्यालियों में तेरे प्रेम-रस को उड़ेल-उड़ेलकर पीनेवाला मस्ताना जोगी सुझे तो अबतक कोई नज़र नहीं आया। मिले, सैकड़ों-हजारों मिले, पर वे ही धर्म-धुरन्धर आस्तिकाचार्य और भक्ताधिराज मिले। बस, ऐसे ही सब मिले, पर वे न मिले, जिनकी आँखों से तेरे प्रेम-विरह का रस छलक रहा हो, जिनके हृदय में तेरे लिए लगन की लपटें उठ रही हों। धर्मवान् तो मिले, पर सत्यवान् न मिले। मजहबी

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