तो मिले, पर ईमानदार न मिले । रंगदार तो मिले, पर वेरंग
न मिले । वे मिले, जो न मिलते, तो अच्छा था, वे न मिले,
जिन्हें ये आँखें वहाँ मुद्दत से ढूँढ़ रही थीं। ऐसी ही वह
सारी रँगी हुई वस्ती मिली । बेखुदा ही वहाँ सब मिले,
बेखुद न मिले और वाखुदा तो कोई न मिला । वहाँ आस्तिक तो
प्रायः सभी हैं, पर ईश्वर पर विश्वास किसी एक का भी नहीं
है । उस नगरी में नास्तिक एक भी नहीं है, पर अपने कर्मों
से ईश्वर का उपहास करनेवाले वहाँ अनेक हैं। यही तो
उनमें खूबी है। कुछ भी हो, आस्तिक तो वे रहेंगे ही।
नास्तिक उसी को वहाँ कहा जायगा , जो उन धर्म-संरक्षकों की
हाँ में हाँ न मिलाता होगा। स्वार्थ-पूर्ण धर्म की ओट न लेकर
कुछ कर बैठना ही वहाँ नास्तिकता है; और ऐसे मनमुखी
नास्तिक धर्मशास्त्र के अनुसार अवश्य लाञ्छनीय हैं । ऐसे
धर्म-विरोधी दुष्ट दण्डय ही नहीं, वध्य भी हैं । रूसके आज
अनेक राक्षस जान-मानकर यह महान् पाप कमा रहे हैं । कुछ
ठिकाना उन नास्तिकों की नीचता का ! धर्म का नाम मिटा
देना चाहते हैं। अपने हाथों अपने 'सनातन गढ़' को गिरा रहे
हैं ! मूर्ख अपने सुदृढ़ गढ़ में बैठकर पर-धनापहरण, व्यभि.
चार और नर-हत्या नहीं करना चाहते! पर्दे को फाड़कर वहां
के वे नीच निवासी आज नग्ननृत्य कर रहे हैं। कितना भारी
पाप है यह ! धर्म-मर्यादा के नाम पर वे जो करना चाहें
करें, कोई कुछ न कहेगा, पर धर्म की अवहेलना करके
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