पृष्ठ:स्वाधीनता.djvu/२८४

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नाथ! नाराज़ न हो जाना। मेरी एक शिकायत तेरे कान तक ज़रूर पहुँची होगी। यह सच है, कि मैंने तेरे पवित्र मंदिरों में जाना छोड़ दिया है। पर इसका मुझे विश्वास है, कि मैंने अपनी समझ में यह कोई अपराध नहीं किया। यह वात नहीं है, कि मैं मूर्तियों में तेरी सत्ता स्वीकार नहीं करता। विश्व-रमण! यह कैसे हो सकता है? जो ब्रह्माण्ड के रोम-रोम में समाया हुआ है, वह मन्दिर या मुर्ति से अलग होगा, यह कल्पना ही निराधार है।

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