पृष्ठ:स्वाधीनता.djvu/२८५

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विश्व-रमण राम! तु कहाँ नहीं है? प्यारे, मृर्ति में भी तू है और मूर्ति के बाहर भी तू है। बुतपरस्त में भी तू है, और वुतशिकन में भी तूही है। मन्दिर भी तेरा है, मसजिद भी तेरी है और गिरजा भी तेरा ही मकान है। तू कहाँ नहीं है। जहाँ भी तेरे सहज सौन्दर्य की बात सुनता हूँ, वहीं तेरी प्यारी झलक देखने को दौड़ जाता हूँ। फिर मन्दिर से ही मेरा ऐसा क्या वैर है? एक कारण है, और वह ज़बरदस्त कारण है मेरे मन्दिरों में न जाने का। मैंने वहाँ जाना छोड़ा नहीं है, छुड़ाया गया है। धर्म के ठेकेदारोंने, तेरे पंडित-पुजारियोंने मेरा वहाँ जाना छुड़ाया है। तुझसे यह न छुपा होगा, कि ऐसा मैंने लाचारी के दरजे में ही किया है, नाथ!

हाँ, उन्हीं धर्मात्माओं की महती कृपा से मैं यह करने को बाध्य हुआ हूँ। सच मान, मजबूरन् ही मैंने ऐसा किया है। हे परमपिता! तेरी नज़र में तो तेरे सभी बच्चे बराबर हैं न? सभी पर तेरा एक-सां प्यार है न? तेरे आगे जैसा ब्राह्मण, तैसाही चमार। तेरे लिए जैसा राजा, तैसाही रंक। तेरी दृष्टि में जैसा पंडित, तैसाही मूर्ख। वात्सल्य-धारा तो तेरी सदा सव के लिए एक-सी बहती रहती है न? अपनी स्नेह-निधि का दान करते समय तूने कभी भेद-बुद्धि से काम नहीं लिया, इसका मुझे पूर्ण विश्वास है। किन्तु वर्तमान धर्म-व्यवस्थापकों का ऐसा मत

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