पृष्ठ:स्वाधीनता.djvu/२८७

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आयगी ही। तू मेरी इस झूठी उँचाई के अभिमान को क्या पसंद करेगा? एक बच्चा तो तेरी प्यार-भरी गोद में आकर बैठ जाय और दूसरा दूर से ही तरसा करे, पिता को क्या यह विषम व्यवहार अच्छा लगेगा? तेरी मुझ पर सदा एक-सी कृपा बनी रहे, इसीलिए मैंने द्विजाति-अधिकृत मन्दिरों से असहयोग कर रखा है। जो प्रभु-पूजा का स्थान मेरे दलित भाइयों के लिए नियत है, वही मेरे लिए भी है। जहाँ वे हैं, वहीं मैं हूँ। मैं उनसे बड़ा नहीं, उनसे बढ़कर नहीं। यही मेरे मन्दिरों में न जाने का मुख्य कारण है। मेरी इस मज़बूरी और लाचारी पर नाराज़ न होना, अन्तर्यामी! तू ही कृपा कर इसका निर्णय करदे, कि मैंने यह धर्म किया है या अधर्म?

मुझसे कोई पूछे, तो मैंने तेरे मन्दिरों से असहयोग करके कोई अधर्म नहीं किया। सच बात तो यह है, कि मुझे तेरा दर्शन मन्दिर के बाहर ही मिल जाया करता है। मैंने तो तुझे, अय मेरे हीरे, उन दलित अन्त्यजों के ही पास पड़ा पाया है; अहम्मन्य कुलीन पुजारियों का साथ तो तू कभी का छोड़ चुका है। मेरी तो, प्रभो, कुछ ऐसी ही धारणा है। जहाँ भी कोई तुझे प्रेम से याद करेगा, वहीं तू जाकर हाथ बाँधे खड़ा हो जायगा। तू किसी ख़ास संप्रदाय या ख़ास जाति की ही सम्पत्ति नहीं है। हर कोई तेरा है और तू हर किसी का है। मत-मजहब के बखेड़ों से तू सदा दुर

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