पृष्ठ:स्वाधीनता.djvu/२८८

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रहा है। मजहब का कच्चा कानून तेरी प्रेम-रस-धारा के निरन्तर प्रवाह को आजतक रोक नहीं सका। दमियों की दाल तेरे श्रागे आजतक गल नहीं सकी।

जब उन धर्म के ठेकेदारों की पाखण्ड-लीला मुझसे देखी न गई, तब मज़बूरन् मुझे तेरे मन्दिरों की ओर से आँख फेर लेनी पड़ी। जब मैंने देखा, कि तेरे दरवार में भी मुहँदेखा व्यवहार होने लगा है, तब मेरे कष्ट का पार न रहा। तेरा घर भी ख़ास-ख़ास उपासकों के लिए किराये पर उठाया जा सकता है, उनके सुख-सुभीते के लिए तेरा मन्दिर भी 'रिज़र्व्ड' किया जा सकता है, तब मुझे तेरे धर्म-धुरन्धर पुजारियों के प्रति बड़ा क्षोभ हुआ। पर यह जानकर मेरे हृदय की पीड़ा कुछ कम हो गई, कि जबतक बाहर खड़े हुए दर्शनाभिलाषी दोन भक्तों के लिए तेरे मन्दिर के फाटक बन्द रहे, तबतक तू भी मूर्तियों से निकलकर उनके बीच में वाहर ही खड़ा रहा। अब मेरी श्रद्धा उन ऊँचे-ऊँचे हज़ारों धर्म-व्यवस्थापकों पर कैसे ज्यों-की-त्यों बनी रहे? देव-मन्दिर की फाटक-वन्दी करना भी क्या कोई धर्माज्ञा है? अरे, तेरे सामने कौन बड़ा और कौन छोटा! कौन ऊँचा और कौन नीचा! तेरा मन्दिर भाड़े का मकान नहीं है, वह किसी खाला का घर नहीं है। खैर, मैं कोई बड़ा आदमी नहीं हूँ; जनसाधारण के पैरों के पास मेरा एक मामूली स्थान

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