पृष्ठ:स्वाधीनता.djvu/२९

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स्वाधीनता।


योरप के राजों को, इन दो बातों में से पहली बात, लाचार हो कर, थोड़ी बहुत माननी पड़ी। परन्तु दूसरी बात को उन्होंने नहीं माना। इस लिए राजों की शक्ति या सत्ता की अनुचित वृद्धि को रोकने के इरादे से बनाये गये दूसरी तरह के कायदों को प्रचलित कराने, या, यदि वे कुछ ही कुछ प्रचलित हुए हों तो उनका पूरा पूरा प्रचार कराने के लिए कोशिश करना, सब कहीं, स्वाधीनताप्रिय और स्वदेशाभिमानी लोगों का सब से बढ़कर काम हो गया। एक शत्रु को दूसरे से लड़ा देने, और राजा के अन्याय से बचने की तरकीब निकाल कर उसके अधीन रहने ही में जब तक मनुष्यजाति सन्तुष्ट थी तब तक, उसके हृदय में इससे अधिक स्वाधीनता पाने की महत्त्वाकांक्षा नहीं उत्पन्न हुई।

परन्तु, दुनिया के कामों में, आदमियों की तरक्की होते होते एक ऐसा समय आया कि उनके वे पहले विचार बिलकुल ही बदल गये। अब तक उनकी जो यह समझ थी कि, प्रजा के फायदे की परवा न करनेवाली स्वतंत्र राज-सत्ता का होना किसी तरह नहीं रोका जा सकता, उसे उन्होंने दूर कर दिया। अब उनको यह बात अधिक अच्छी और अधिक लाभदायक जान पढ़ने लगी कि देश में जितने सत्ताधीश और अधिकारी हों उनको प्रजा ही नियत करे; और उन्हें जब वह चाहे अलग कर दे। उनकी यह पक्की समझ हो गई कि राज-सत्ता के बुरी तरह से काम में लाये जाने से उनको जो तकलीफें झेलनी पड़ती हैं उनसे पूरे तौर पर बचने के लिए यही एक उपाय है। जव प्रजा के मन में इस तरह का विश्वास दृढ़ हो गया तब प्रजा के जितने हितचिन्तक थे, और स्वदेशाभिमानियों के जितने समाज थे, सब यही कहने लगे कि सारे सत्ताधिकारी भजा के ही द्वारा नियत किये जाँय। इस बात को उन्होंने अपना सब से बड़ा कर्तव्य समझा। इस कारण, राजसत्ता की अनुचित बाढ़ को रोकने के लिए लोगों की जो कोशिशे पहिले से जारी धी वे ढीली पड़ गई। जैसे जैसे लोगों का यह खयाला जोर पकड़ता गया कि, समय समय पर, प्रजा ही के द्वारा अधिकारियों के नियत किये जाने में फायदा है, तैसे तैसे किसी किसी की समझ में यह भी आने लगा कि राजा के अधिकार की हद को अधिक न बढ़ने देने के लिए आज तक जो विशेष ध्यान दिया गया वह भूल थी। हाँ, जो राजा लोग प्रजा के फायदे की बिलकुल ही परवा न करते थे और प्रजा के प्रतिकूल काम करना जिनका