पृष्ठ:स्वाधीनता.djvu/२९०

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'गर्व-गंजन' भी तो है। तब फिर कोई फिक्र की बात नहीं।

माफ़ करना, सरकार, मैं तो अपने साधारण अनुभवों से अब इस नतीज़े पर पहुँचा हूँ, कि ये मंदिर और ये मसजिदें या गिरजे तेरे मकान नहीं, बल्कि दीन के दूकानदारों की अच्छी सजी-सजाई दूकाने हैं। ये सौदागर ईमान के बेचने में, बस, बेजोड़ हैं। मंदिरों और मूर्तियों की बाहरी सजावट करना ये लोग खूब जानते हैं। कैसा ही कंजूस गाहक हो, कुछ-न-कुछ तो धर्म का सौदा करके ही वह दूकान से जायगा। जिस दिन कोई भारी धनी-मानी गाहक इन दूकानों पर आता है, उस दिनका इनका साज-सिंगार देखते ही बनता है। देव! तेरे प्रति नहीं, बल्कि अपने प्रतिष्ठित ग्राहक के प्रति उस दिन इन धर्म-विक्रेताओं की प्रेम-भक्ति इनके रोम-रोम से फूट निकलती है। इन चतुर व्यवसाइयों के द्वारा किये हुए अपने उस महान् अपमान पर तू अवश्य हो उस समय हँस दिया करता होगा। सचमुच, गाहक पहचानकर ही ये दीन के दूकानदार सौदा देते हैं। किसी-किसी भाग्यवान् के साथ ख़ास रिआयत भी की जाती है। एक प्रसिद्ध देवालय के दरवाजे पर कुछ महापुरुषोंने एक ‛साइनबोर्ड' लगा रखा है,

जिस पर यह धर्मवाक्य खुदा हुया है―
 

“गोरे और अधगोरे साहवों तथा एक प्रान्त-विशेष के नरेशों के सिवा कोई मंदिर के अंदर जूते पहने हुए न जाय।"

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