पृष्ठ:स्वाधीनता.djvu/२९१

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मालूम नहीं, यह प्रशस्ति अब भी वहाँ लगी हुई है, या निकाल ली गई है । यह खास कमीशन है । पर है यह कमीशन विमल बूट-धारी तपस्वी साहबों के ही भाग्य में, ऐरे-गैरे गाहकों की मामूली लतड़ियों को धर्म की यह खास नियामत नसीब नहीं।

कुछ समझ में नहीं आता, कि आखिर यह सब है क्या!ये सब मठ-मंदिर, ये सारे धर्म के अड्डे क्या हमें सदा ऐसी ही घृणित शिक्षा देते रहेंगे ? दुनिया में तो पक्षपात चल ही रहा है, पर इसका ज्ञान मुझे नहीं था, कि खुदा के भी घरों में मुहँदेखी तरफदारोने अपना डेरा डाल रखा है ! इतने पर भी मैं देवालयों के साथ अपना सहयोग. कायम रखे रहूँ ? आस्तिक-नाम-धारी नीच नास्तिकों की पाखण्ड-लीला देखते-देखते, अय मेरे दिल के मालिक, मेरी कमजोर आँखों में खून उतर आया है । तेरा अपमान अब तो नहीं देखा जाता । क्यों न मैं विद्रोही हो जाऊँ इन मजहवी डकैतों और ईमान के ठग सौदागरों के खिलाफ ? कहाँतक देखी-सुनी जायगी धर्म के पवित्र नाम पर तेरी सत्ता की विचित्र विडम्बना, तेरा यह सार्वभौम धर्म तिरस्कार !! आँखे देखते-देखते पथरा जायँगी, सुनते-सुनते कान पक जायँगे । एक दिन ठंडे-से भी ठंडा हृदय विद्रोह की आग से जल उठेगा । प्रभो ! तेरी सर्वव्यापिनी सत्ता का कैसा बुरा मज़ाक उड़ाया जा रहा

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