पृष्ठ:स्वाधीनता.djvu/३०५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।


वज्राघात से काँप उठे । सत्ताधारियों के होश उड़ गये । राज-सिंहासनों की जड़ हिल गई । एक भूकम्प-सा आ गया । दीन और ईमान के सौदागरों से चुप न रहा गया। कमर कसकर तैयार हो गये उन काफ़िर फ़कीरों की वाहि- यात हलचल कुचल देने के लिए । उन्हें सफलता भी मिली अपने धार्मिक पड़यंत्रों में। कौन जाने, उन विद्वेपियोंने ही उन संतों के खून से अपने-अपने दामन रँगे, या भगवन् , तूने ही अपने प्यारे और भोले बच्चों को बौखलायी हुई दुनिया की हवा का उलटा रुख देखकर अपनी प्यार-भरी गोद में उठा लिया । कुछ हो, प्रेम के शब्द-रत्न विखरनेवाले ला. मजहब संतों की अंत में होती यही दशा है । अलख जगाने- वाले उन प्रेमी जोगियों की झोली में, वस, तिरस्कार और मृत्युदण्ड की ही भीख डालकर हम लोग पुण्य और धर्म कमाया करते हैं। यही अवतक होता आया है और यही सदा होता चला जायगा । प्रकृति के इस नियम में न कभी कोई संशोधन हुआ है, न होगा। विश्व के धार्मिक इति- हास में यह एक ध्रुव सत्य है। ___अब प्रार्थना यह है, कि अपने अपमानित, तिरस्कृत और दंडित जनों के बीच मुझे भी, नाथ, ले चल । उनके बीच में, जो चुपचाप तेरेही दिखाये त्याग-मार्ग पर चल रहे हों-कोई पर्वा नहीं, कि वे धर्म भ्रष्ट कहे जाते हों या समाज-च्युत । मैं उन .खुदमस्तों के चरणों की धूल अपने

४०