आज के इन समस्त प्रचलित धर्मो का मानव-जीवन से
शायद उतना ही संबंध होगा, जितना कि किसी वन्ध्या का
अपने प्यारे पुत्र से । सचमुच आज का धर्म जीवितों का धर्म
नहीं है। इस में है क्या ? वही विकृत मंद मस्तिष्क और नीरस
निस्पन्द हृदय । जीवन की जटिल समस्याएँ हल हों तो
कैसे ? अध्यात्म का नाम तो हम हमेशा लेते हैं, पर सत्य से
अभी कोसों दूर पड़े हैं। फिर हम क्यों शिकायत करें अशिव-
अकल्याण-की? ईश-उपासना की साधना तो हृदय से कभी
की ही नहीं। यह कहना झूठ है, कि हम ललित कलामों के
प्रेमी हैं । ऐसे ही होते, तो कभी के हम सुन्दरतम के निकट
पहुँच गये होते । अब कैसे हम अपने प्राण-शून्य जीवन में
'सत्यं शिवं सुन्दरम्' का सामञ्जस्य देखें ? हमने आजनक
अपमान ही तो अपने जीवन का किया है । वुद्धि का अप-
मान हमने किया, हृदय का अपमान हमने किया और
आत्मा का भी अपमान हसींने किया । इन्हीं उपकरणों से
तो जीवन का निर्माण होता है। ऐसे तुच्छीकृत उपकरणों
के समूह को हमने धार्मिक जीवन का नाम देकर, परमा-
त्मन्, तेरी सत्ता का केवल उपहास ही तो किया है ! जिस
के द्वारा तूने बुद्धिवाद और अनासक्तिवाद का अपूर्व उप-
देश किया, उस गीता का दिव्य सन्देश हमारे कानोंतक
कभी पहुँचा ही नहीं । सत्यनारायण की कथा-जितनी भी
हमने गीता की इज्जत नहीं की। बुद्धि की खूब अवहेलना
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