पृष्ठ:स्वाधीनता.djvu/३११

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खुदी ही खुदा है और नफ़्स ही अपनी आत्मा है। लगावट तो नहीं, पर वनावट हमारे पास अब भी एक बड़ी चीज़ है । बिना ही रूह के हम से ऊँची-से-ऊँची रूहानी बातें जो चाहे सुनले । विना ही हक़ के हम से अच्छी-से-अच्छी हक़ीक़ी वहस चाहे जो कराले । हमारी कुल धर्म-संपत्ति बस इतनी ही है । आश्चर्य यही है, कि हम विना प्राणों के भी साँस ले रहे हैं, बिना हृदय के भी प्रेम और भक्ति के रस में सराबोर हो रहे हैं, और बिना बुद्धि के भी धर्म का व्यवसाय बखूबी चला रहे हैं !

किमाश्चर्यमतः परम् !!

यह है हमारा वुद्धि-धर्म, यह है हमारा हृदय-धर्म और यह है हमारा प्रात्म-धर्म । पर, वास्तव में, जीवित धर्म के क्या ऐसे ही लक्षण हुआ करते हैं ? 'हाँ' कह देने को मन नहीं होता। और सब ठीक है, बस, सिर्फ जान ही की कमी है । आँखों के आगे इसे रखे-रखे चाहे जबतक देखते रहे, पर इस ठंडे मुर्दे से काम कुछ न निकल सकेगा। इसलिए इसे जला देना ही अब अच्छा होगा। रोते-धोते अन्त्येष्टि कर ही डालें अपने प्यारे निस्सत्व धर्म की। हाँ, मोह-ममता लिए कवतक बैठे रहेंगे ? पर, अन्त्येष्टि संस्कार के पूर्व 'शव-मन्थन' तो एकबार करना ही होगा।

उन दिनों धर्म की नसों में त्याग का उष्ण रक्त दौड़ता था । अनासक्ति की अमृत प्राण-शक्ति इसे स्वयं भगवान्ने

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