पृष्ठ:स्वाधीनता.djvu/३१५

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खुश कर लेने को जैसे जन्नत का खयाल अच्छा है, वैसे ही किसी ग़रीब का गिरा हुआ दिल दुखा देने को जहन्नुम का भी खयाल खूध है ! मजहब के व्यवसाइयों के हाथ में नरक एक महान् अस्त्र है, इसमें सन्देह नहीं। अस्तु; धर्म के उस भावी स्वाभाविक संस्करण में यह सब न होगा।

उस में नवसंस्कृता प्राचीनता ही तो होगी। प्रज्ञा से प्राचीन मौर क्या हो सकता है ? उस विश्व-धर्म की साधना हम प्रज्ञा के ही द्वारा करेंगे । आश्चर्य ! स्थितप्रश्न के लक्षणों का, गीता में, हम सभी नित्य पारायण करते हैं, पर प्रज्ञा को मानों भुला ही बैठे हैं। बुद्धि-स्वातंत्र्य को कै़दखा़ने में रखकर हम आज स्वाधीनता की घोपणा कर रहे हैं ! विलक्षण है हमारी बुद्धि-पूजा ! ज़रूर यह काम हम करेंग और इसे करना ही चाहिए, क्योंकि कुछ सदियों से हमारे यहाँ यह होता आया है ! कैसी लचर दलील है ! बुद्धि की अवहेलना करनेवाली यह सनातनी व्याख्या विश्व-धर्म की साधना में काम न दे सकेगी। माना कि, धर्मशास्त्र प्राचीन हैं, पर शास्त्रों की जननी प्रज्ञा तो उन से भी प्राचीन है । प्रतः विश्व-धर्म में प्रज्ञा को आदर पहले दिया जायगा, भौर शास्त्रों को पीछे। यही तो उसकी पुनीत प्राचीनता होगी।

प्राण-शक्ति उस में भावना की होगी-वही, ज्ञान और कर्म की अविरोधिनी भक्ति-भावना । वही, वासना को लात

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