पृष्ठ:स्वाधीनता.djvu/३१६

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मारकर साधना को आलिङ्गन देनेवाली अध्यात्म-भावना । भावना ही तो सत्य में अक्षय सौन्दर्य की सृष्टि रचेगी। भावना को सुन्दर विश्व-विभूतियाँ देखते-देखते हम थक जायँगे, तथापि तृप्त न होंगे। उस सात्विक अतृप्ति में ही तो मनन्त आनन्द है। कैसे-कैसे सुन्दर भाव-चित्र विश्व-धर्म के महान मन्दिर में देखने को मिलेंगे ! अहा !

यह राज-राजेश्वर पुरुषोत्तम राम ग़रीव गुह को गले से लगाये खड़े हैं । सुरसरि की धवल धारा इन दोनों मित्रों की प्रेमाश्रु-धारा को क्या पा सकेगी ? धन्य गरीव- निवाज राम!

सनातन-शुद्रा शवरी के मलिन हाथों से अयोध्या के पुण्यश्लोक राज-कुमार जूठे बेर कैसे प्रेम-भाव से खा रहे हैं । वैदिक यज्ञ क्या इस अकिंचन आतिथ्य से भी अधिक पवित्र है ? धन्य पतित-पावन राम !

वह सत्यवीर सम्राट् हरिश्चन्द्र स्मशान में सम्राज्ञी शैव्या से वत्स रोहिताश्व का आधा कफ़न किस दृढ़ता से माँग रहा है ! कर्त्तव्य की वेदी पर कैसा अपूर्व मोह-मेध रच रखा है इस आदर्श राज-दम्पतिने!

यही प्रेमावतार कृष्ण हैं । दीनातिदीन सुदामा के धूल-भरे पैरों को भाप अपने प्रेमाश्रुषों से ही धो रहे हैं । मित्र-सेवा का यह अनुपम भाव-चित्र है।

अनासक्ति योग के मादि प्रवर्तक यही पार्थ सारथि

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