पृष्ठ:स्वाधीनता.djvu/३४

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पहला अध्याय।


नियमों को बनाने के काम में हम लोग बहुत पीछे हैं। एक पीढ़ी ने जो नियम बनाये हैं वे दूसरी पीढ़ी के बनाये हुए नियमों से नहीं मिलते। और एक देश के बनाये हुए नियम दूसरे देश के नियमों से भी शायद ही कभी मिलते हैं। एक पीढ़ी या एक देश का किया हुआ फैसला दूसरी पीढ़ी या एक देश को अनोखा मालूम होता है-वह उसे हास्यास्पद जान पड़ता है। तिलपर भी एक युग या एक देश के आदमियों को इसमें कोई गूढ बात या कठिनाई नहीं मालूम देती, जैसे, इस विषय में, पुराने जमाने से लेकर आज तक, मनुष्य-मात्र का एक ही मत रहा हो। जो नियम, जो कायदे, जिस देश में जारी होते हैं वे उस देश में रहनेवालों को स्वयंसिद्ध और निर्धान्त जान पड़ते हैं। सब कहीं फैला हुआ यह जो सर्वव्यापी भ्रम है वह लोगों के रीतिरवाज, अर्थात् रूढ़ि, के अद्भुत प्रभाव का एक अच्छा नसूना है। एक कहावत है कि रीति-रस्म, आदत का दूसरा नाम है। पर इस नियम के सम्बन्ध में लोगों को हमेशा यह भ्रम होता है कि रीति-रस्म ही का नाम आदत है। व्यवहार सम्बन्धी कायदे बनाकर मनुष्य उन्हें जो एक दूसरे के उपर लाद देते हैं, ऐसे कायदों के विषय में रीति-रवाज अर्थात् रूढ़ि को और भी अधिक प्रबलता प्राप्त होती है। क्योंकि लोग बहुत करके इसकी जरूरत ही नहीं समझते कि एक आदमी दूसरों को, या हर आदमी खुद अपने ही को, प्रचलित रीति-रस्मों का कारण बतलावे। अर्थात् असुक काम करने, या असक रूढ़ि को जारी रखने, का कारण बतलाने की जरूरत नहीं समझी जाती। आदमियों को इस बात पर विश्वास करने की आदत पड़ जाती है। कुछ लोगों ने, जो अपने को तत्त्ववेत्ता समझने तक का हौसला दिखलाते हैं, आदमियों के इस विश्वास को यहां तक उत्तेजित कर दिया है कि वे अपने मनोविकारों को तर्कशास्त्र के प्रमाणों से भी अधिक बलवान् और विश्वसनीय सानते हैं। इस लिए अपने विश्वास के समर्थन में प्रमाण ढूंढ़ना और कारण बतलाना वे व्यर्थ समझते हैं। हर आदमी यही चाहता है कि जो बातें उसको या उसके पक्षवालों को अच्छी लगती हैं उन्हींके अनुसार समाज के सब लोक बर्ताव करें। इसी विकार के वश होकर, हर आदमी, समाज की व्यवस्था करने और उसके लिए बन्धन बनाने के विपय में अपनी अपनी राय देता है-अपना अपना मत स्थिर करता है। यह जरूर सच है कि कोई भादमी इस बात को नहीं कुबूल करता कि न्याय तौलने का उसका तराजू