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स्वाधीनता।


उसीकी रुचि है। अर्थात् वह यह नहीं कहता कि अपनी रुचि को ही नमूना मानकर वह न्याय करता है। पर किसी के चाल-चलन, व्यवहार या बर्ताव के विपय में कायम की गई राय, यदि वह तर्कशास्त्र के आधार पर नहीं है तो, राय देनेवाले ही की रुचि या पसन्द की कही जा सकती है। यदि कोई यह कह कि जिस बात को मैं पसन्द करता हूं उसको और भी बहुत आदमी पसन्द करते हैं, तो उसका भी यही उत्तर है कि जैसे एक आदमी की रुचि न्याय तौलने के लिये अच्छे तराजू का काम नहीं दे सकती वैसे ही बहुत आदमियों की रुचि भी वह काम नहीं दे सकती। जिसपर भी, इस तरह की, बहुत आदमियों की रुचि, एक साधारण आदमी को पूरे तौर पर सप्रमाण और साधार मालूम होती है। यही नहीं, किन्तु नीति का, रीति का और उचित अथवा अनुचित बातों के विषय में जो विचार आदमियों के दिल में पैदा होते हैं उनका, आधार सिर्फ बहुत आदमियों की रुचि या पसन्द ही मानी जाती है। हां, जिन बातोंका बयान अपने अपने धर्म या ग्रन्थ की पुस्तकों में होता है उनके लिए बहुत आदमियों की रुचि का आधार नहीं रहता। उनको छोड़कर और सब बातों में इसी नियम के अनुसार काम होता है। यहां तक कि धर्म पुस्तकों में कही गई बातों का अर्थ भी, इसी नियम को आधार मानकर, लगाया जाता है। इस तरह, बुरी या भली बातों के विषय में आदमियों की जो राय होती है वह, दूसरों के वर्ताव और चालचलन से सम्बन्ध रखनेवाली अपनी रुचि और उस रुचिके कारणों के आधार पर हमेशा कायम रहती है। दूसरी बातों के विषय में आदमियों की इच्छा को पैदा करनेवाले जैसे अनेक कारण होते हैं वैसे ही उनकी इस-पसन्द करने या न करने की इच्छा के भी होते हैं। इन कारणों में से कभी भले-बुरे का विचार; कभी पूर्व प्रवृत्ति (बे समझे बुझे किसी तरफ झुकाव) और मिथ्या धर्म; कभी समाज के अनुकूल काम करने की आदत; कभी मत्सर, झूठा घमण्ड और दूसरों के विषय में तिरस्कार बुद्धि--इत्यादि मुख्य समझने चाहिए। परन्तु, बहुत करके सबसे प्रबल कारण स्वार्थ होता है। अर्थात् सिर्फ अपना मतलब साधने के लिए ही वैसी इच्छा पैदा होती है; चाहे वह भली हो, चाहे बुरी। जहां के निवासियों में वर्ष-भेद होता है अर्थात् जिस देश में एक आध वर्ण औरों से श्रेष्ठ माना जाता है वहां की नीति, अर्थात् लोगोंके व्यवहार के नियमों का सबसे बड़ा