पृष्ठ:स्वाधीनता.djvu/३६

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पहला अध्याय।


हिस्सा, उसी वर्ण के स्वार्थ और श्रेष्ठता-सम्बन्धी समझ के आधार पर बना हुआ होता है। ग्रीस देश के स्पार्टा-निवासियों और उनके गुलामों में, अमेरिका के अंगरेज-किसान और हबशियों सें, सरदार और किराये के सियाहियों में, पुराने राजा और प्रजा में, स्त्रियों और पुरुषों में जिस नीति या जिन नियमों का बर्ताव किया गया है वह नीति या वे नियम, बहुत करके, श्रेष्ठ पक्षवालों के स्वार्थ और समझ के आधार पर ही बने हैं। पर, इस तरह के स्वार्थ और इस तरह की समझ का असर, श्रेष्ठ वर्णवालों में आपस में व्यवहार करने के जो नियम होते हैं उन पर भी होता है। अर्थात जिस देश में पहले श्रेष्ठ माना गया वर्ण, पीछे से औरों की नजर में गिर जाता है या उसकी श्रेष्ठता बिलकुल ही जाती रहती है उस देशका समाज उसका तिरस्कार करने लगता है। इस लिए समाज की नीति के नियमों में भी उस वर्ण के विषय में निरादर के चिह्न देख पड़ने लगते हैं।

पहले नियम का बयान ऊपर हो चुका। एक और भी नियम। वा बहुत बड़ा है। वह राजों और देवताओं के विषय में मनुष्य-मात्र के अच्छे) या बुरे विचारों से सम्बन्ध रखता है। इस तरह के कल्पित विचार, चाहे किसी कानून के जारी किये जाने से पैदा हुए हों चाहे लोगों की राय ही पैसी हो गई हो, परन्तु उनके वश होकर उन्हींके अनुसार आदमी व्यवहार जरा करने लगते हैं। अर्थात् जो राजा या देवता उनकी बुद्धि में बुरा या भला जंच जाता है उसको वे वैसा ही समझने लगते हैं। उनकी बुद्धि ऐसे विचारों में लीन सी हो जाती है। यह उनकी परवशता स्वार्थसे जरूर पैदा होती है, पर, दम्भ से नहीं होती। अर्थात् इस तरह की बुद्धि में दम्भ या पाखण्ड नहीं रहता। क्योंकि यह राजा या यह देवता बुरा है या भला-इस तरह की कल्पित समझ, उसके व्यवहार को देखकर सचसुच ही मनुष्य के मन में पैदा हो जाती है। इसीसे, ऐसी कल्पित बुद्धि में लीन होकर, आदमी औरों का तिरस्कार करने लगते हैं। वह यही कल्पित तिरस्कार-बुद्धि थी जिसके वश होकर आदमियों ने अनेक जादूगर और नास्तिकों को जीता जला दिया था। इस तरह के नीच और निंद्य कारण समाज के व्यवहार और कालबहान सम्बन्धी नियम बनाने के आधार जरूर माने गये हैं। परन्तु, जिस पर भी, यह नहीं कहा जा सकता कि इस तरह के नियम बनाने में समाज के फायदे का ख्याल नहीं किया गया। अर्थात् कोई यह नहीं कह