पृष्ठ:स्वाधीनता.djvu/३८

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पहला अध्याय।


हां, एक ही बात ऐसी है जिसके आधार, या जिसकी बुनियाद, पर बहुत लोगों ने समाज के जुल्म के विरुद्ध इस लिए सतत प्रयत्न किया कि समाज की रुचि या अरुचि को आदमियों की स्वाधीनता में हस्तक्षेप, अयांन दस्तन्दाजी, न करना चाहिए। वह बात धर्मनिष्टा या धार्मिक विश्वास है। यह उदाहरण कई कारणों से ध्यान में रखने लायक है। इससे बहुत सी बातें समझ में आ जाती हैं। उनमें सब से बड़ी बात जो ध्यान में लाती है वह यह है, कि जिन नैतिक विचारों, अर्थात् भले बुरे आचरणसम्बन्धी सुयालों, को लोगों ने तर्कशास्त्र के प्रमाणों की तरह सही माना है वे कहां तक भूलों से भरे हुए हैं। अर्थात् यह मालूम हो जाता है कि वे विचार सही नहीं हैं। भ्रम से पूर्ण हैं। यह बात अब बहुत आदमी मानने लगे हैं कि धर्म-सम्बन्धी उदारता अच्छी चीज है। परन्तु जो आदमी धर्मान्ध हो रहा है वह दूसरे धर्मवालों को जी से घृणा करता है। वह उनसे जरूर नफरत करता है। इसमें कुछ भी सन्देह नहीं। ईसाइयों के सर्व-साधारण धर्म से पहले पहल अलग होकर जिन लोगों ने एक पन्थ अलग स्थापित किया, क्या वे दूसरे पन्थवालों से कम घृणा करते थे? नहीं। पर जब वाद विवाद, शालार्थ या झगड़े की गरमी जाती रही और किसी पन्थ की जीत न हुई, अर्थात्, सब पन्थ जहां के तहां ही रह गये, तब सब पन्थवालों को इस बात की कोशिश करने की जरूरत पड़ी कि जहां तक उनके पन्य का प्रचार हुआ है वहां तक तो बना रहे। तब जिस पन्थवालों की संख्या कम थी उसने अधिक संख्या के पथ्यवालों से यह कहना शुरू किया कि-" हमारे धार्मिक विचारों में बाधा न डालो; धर्म की बातों में उदारता दिखाओ; हम जो कुछ करें करने दो"। निर्वल पक्षवालों ने जब यह समझ लिया कि प्रवल पक्षवालों को अब हम अपने पन्थ में नहीं ला सकते तब धम्मौदार्य दिखलानेके लिए प्रबल पक्षवालों के सामने उन्हें चिल्लाने की जरूरत पड़ी। इससे यह अर्थ निकला कि धर्म के कामोंमें प्रबल पक्षवालों को निर्बल पक्षवालों पर जुल्म न करना चाहिए। धर्म ही का विषय एक ऐसा है जिसके सम्बन्ध में लोगों ने गरे बहे हुए सर्वव्यापी सिद्धान्त को कुबूल किया है। अर्थात् यही बात एक सी है जिसके आधार पर लोगों ने यह राय कायम की है कि हर मानी समाज के खिलाफ भी अपना अपना हक पाने का दावा कर सकता है। समाज का जो यह सिद्धान्त था कि उससे विरोध करनेवालों पर, अर्थात्