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स्वाधीनता।


को करते हैं उसी तरह किसी भ्रामक मत या किसी गलत राय का प्रतिबन्ध भी यदि वे करें तो उन पर अधिक अप्रमादशीलत्व दिखलाने का दोष नहीं आ सकता। अर्थात् और बातों को करते देख जब लोग अधिकारियों को अभ्रान्तिशील नहीं कहते, तब किसी अनुचित मत के प्रचार को रोकने के सम्बन्ध में भी वे वैसा नहीं कह सकते। दोनों प्रकार के कामों में भ्रान्तिशीलत्व, अर्थात् गलती करने का स्वभाव, एकसा है। फिर शिकायत क्यों? किसी बात के सम्बन्ध में हाकिम लोग जो निश्चय करते हैं वह वे इस लिए करते हैं कि आदमी उसका सदुपयोग करके उससे फायदा उठावें सम्भव है उसका उपयोग करने में-उसे काम में लाने में लोग भूल करें। तो क्या इस भूल के डर से लोगों से यह कह देना चाहिए कि वे उसका बिलकुल ही उपयोग न करें? जो बात मुजिर, हानिकर या घातक मालूम होती है उसे रोकने की कोशिश करना अप्रमादशील होने का चिह्न नहीं है। किसी बुरी बात को रोकने से यह नहीं जाहिर होता कि रोकनेवाला यह दावा करता है कि उससे कभी गलती नहीं होती। किन्तु उससे इतना ही अर्थ निकलता है कि यद्यपि वह प्रमादशील है, यद्यपि उससे भूल होती है, तथापि अपनी समझ के अनुसार जो निश्चय लाभकारक जान पड़ता है उसके अनुसार व्यवहार करना उसका कर्तव्य है, उसका धर्म है, उसका फर्ज है। इस डर से कि उसके निश्चय, उसके मत, उसकी राय में भूल होना सम्भव है, यदि वह उसके अनुसार कभी कोई काम ही न करे, तो क्या वह अपने हित की बातों की तरफ बिलकुल ही ध्यान न दे और अपने कर्तव्यों को बेकिये हुए पड़े रहने दे। भूल करने के डर का अत्यन्ताभाव कभी होने का नहीं। तो क्या आदमी चुपचाप बैठा रहे? प्रमादशीलता का यह आक्षेप-गलती करने का यह उन्न सब बातों के विषय में किया जा सकता है। इसलिए जब इस आक्षेप की ध्याप्ति सभी बातों में ढूंढ निकाली जा सकती है तब किसी विशेष बात में इसकी व्याप्ति न्यायसङ्गत, सप्रमाण, या अखण्डनीय नहीं मानी जा सकती। अर्थात् ऐसी सर्वव्यापक आपत्ति किसी भी काम में उचित नहीं समझी जा सकती। गवर्नमेण्ट का, और हर आदमी का भी, धर्म है कि वह यथासम्भव सञ्चा निश्चय करे, पर करे बहुत समझ बूझकर। और जब तक उसके सच्चे होने का पूरा विश्वास न हो जाय तब तक उसे लोगों पर न लादे अर्थात् उसके अनुसार काम करने के लिए लोगों को लाचार न करे। परन्तु