पृष्ठ:स्वाधीनता.djvu/६३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३६
स्वाधीनता।

जितना करना हम अपना फर्ज समझते हैं; और ऐसा करने में, जो कुछ हम ऊपर कह आये हैं, उससे हम जरा भी आगे नहीं जाते।

इसका जवाब यह है कि इस प्रकार का प्रतिबन्ध करना, अर्थात् इस तरह के निश्चय पर विश्वास करके कोई काम करना औचित्य की सीमा के बाहर जाना है—मुनासिब हद के आगे बढ़ना है। जो बात खण्डन के लिए बहुत मौके देनें पर भी खण्डित न होने से सच मान ली जाती है वह, और खण्डन के लिए मौका ही न देने पर जो सच मान ली जाती है वह, इन दोनों में बड़ा अन्तर है। उचित यह है कि हम अपनी सम्मति का खण्डन करके उसे झूठी ठहराने के लिए लोगों को पूरी स्वाधीनता दें। ऐसा करने पर यदि वह प्रमाणपूर्वक खण्डित होने से बच जाय तो हम उसे सच और युक्तिसंगत मानें और तभी हम उसका उपयोग करें। जब तक इस शर्त के मुताबिक काम नहीं किया जायगा; जब तक इस नियम के अनुसार काररवाई नहीं होगी; तब तक झूठ और सच का निर्णय भी न होगा। लोगों को इस बात का विश्वास दिलाने के लिए कि अमुक बात सच, अतएव न्याय्य है, यह शर्त सब से प्रधान है। सारा दारोमदार इसी पर है। यदि हम अपनी राय, अपनी सम्मति या अपने निश्चय का खण्डनमण्डन करके, उसे झूठ या सच साबित करनेके लिए, किसीको मौका न दें तो जिसे ईश्वर ने बुद्धि दी है उसे और किसी तरह इस बात का पूरे तौर पर विश्वास कभी न होगा कि जो कुछ हम कहते हैं वह सही है।

जब हम आदमियों की सम्मतियों के इतिहास का विचार करते हैं, अर्थात् इस बात को सोचते हैं कि, समय समय पर, आदमियों के खयालात किस तरह बदलते गये; अथवा, जब हम इस बात पर ध्यान देते हैं कि आदमियों के बर्ताव में कैसे कैसे परिवर्तन होते गये, तब हमारे मन में यह बात आती है कि क्या कारण है जो लोगों के खयालात और आचरण जैसे हैं उससे अधिक खराब नहीं हो गये? आदमियों ने जो इन बातों को बिगड़ने से नहीं बचाया उसका कारण आदमियों की समझ या बुद्धि हरगिज नहीं। क्योंकि जो बात स्वयंसिद्ध नहीं है, अर्थात् बहुत ही स्पष्ट होने के कारण जिसके सूक्ष्म विचार की जरूरत नहीं है, उसे छोड़कर और सब बातों को समझने और उनके सम्बन्ध में योग्यायोग्य विचार करने वाला यदि कहीं सौ में एक है तो निन्नानवे ऐसे हैं जो उन बातों को बिलकुल ही नहीं समझते