पृष्ठ:स्वाधीनता.djvu/७०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४३
दूसरा अध्याय।


की काररवाई करनेवाले-इस तरह अपने मन में लोचनेवाले–यह घमण्ड करते हैं। परन्तु, यह उनकी आत्मश्लाघा-यह उनकी अपने मुंह रूपनी बढ़ाई-व्यर्थ है। इन महात्माओं के ध्यान में यह बात नहीं आती कि एसी दलीलों से उनकी अभ्रान्तिशीलता एक इञ्च भर भी कम नहीं होती। हां, होता क्या है कि उनकी अभ्रान्तिशीलता अब तक जो एक बात के विषय में थी कह दूसरी बात के विपय में हो जाती है। क्योंकि किसी विषय को उपयोगी लमझना भी सिर्फ राय की बात है। जिसे एक आदमी उपयोगी समझता है उसे सम्भव है और लोग उपयोगी न समझें। अतएव किसी विषयके उपयोगीपन को साबित करने के लिए भी विवेचना की जरूरत है। जिस तरह इसके साबित करने की जरूरत है कि कोई बात झूठ है या सच, उसी तरह इसके साबित करने की जरूरत है कि वह उपयोगी है या नहीं। यह निर्णय बिन विवेचना के नहीं हो सकता। जिस बात को तुम उपयोगी समझते हो उस बात के विरोधियों को यदि तुम बोलने का मौका न दोगे और उनकी दलीलों को बिना सुने ही उसे उपयोगी मान लोगे तो अभ्रान्तिशीलता का आरोप तुम्हारे ऊपर से हरगिज नहीं हट सकता। शायद तुम कहोगे कि तुमने अपने विरोधियों को अपनी बात के झूठ या सच होने के विषयमें बोलने की अनुमति नहीं दी; पर उसकी उपयोगिता या अनुपयोगिता के विषय में बोलनेकी अनुमति तो दी है। परन्तु इस बहाने से काम न चलेगा। तुम्हारी यह दलील कोई दलील नहीं। किसी बात, राय या सम्मति की उपयोगिता उसके सच्चेपन का-उसकी सत्यता का ही एक अंश है। अर्थात् जो बात सच नहीं है वह कभी उपयोगी नहीं हो सकती। जव मन में यह विचार आता है कि कोई बात विश्वास करने के लायक है या नहीं तव क्या यह सम्भव है कि उसके झुठ या सच होनेका विचार मन में न पैदा हो? जो मत, या विश्वास सच नहीं है उससे कभी फायदा न होगा; वह कभी उपयोगी न होगा। जिनको तुम बुरा कहते हो, यह मत, उन्हीं का नहीं है; जो निहायत भले हैं, जो सज्जनों के शिरोमणि हैं, उनका भी है। जिस बात को तुम उपयोगी और अच्छा कहते हो वह यदि इन सजनशिरोमणियों को झट मालूम हुई तो वे उसे हरगिज कबूल न करेंगे। इस हालत में यदि तुम उन पर अपनी बात को कवूल न करने का इलजाम लगावोगे तो वे फौरन यह कह देंगे कि तुम्हारी बात झूठ है तुम्हारी रायः