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दूसरा अध्याय।


परन्तु नास्तिक न होकर भी जो शपथ खाते हैं और झूठ बोलते हैं उनकी गवाही खुशी से ली जाती है। जरा इस विलक्षणता को तो देखिए! ऐसे अनेक आदमी हैं जो दिल से न ईश्वर को कुछ समझते हैं और न परलोकको कुछ समझते हैं परन्तु समाज की नजर में गिरजाने के डर से मुंह से वे वैसा नहीं कहते। जो लोग इस तरह के हैं उनकी हलफ कानून के खिलाफ नहीं। खिलाफ किनकी है? जो लोकापवाद की जरा भी परवा न करके बल बोलने की अपेक्षा साफ साफ यह कह देना अधिक पसंद करते हैं कि हम नास्तिक हैं। यह बड़े आश्चर्य की बात है! इस नियम के बेढंगेपन को तो देखिए। यहां पर बेहूदापन की हद हो गई। जिस मतलबसे यह नियम बनाया गया है वह सतलब इससे हरगिज नहीं निकलता। हां, इससे एक बात साबित होती है, और उसीके लिए यदि यह रक्खा जाय, तो रक्खा जा सकता है। वह यह कि, यह नियम कोई नियम नहीं। नास्तिकों के तिरस्कार की सूचक यह एक चपरास है; अथवा पुराने जमाने के प्रजापीड़न का यह एक पुछल्ला है! और पीड़न भी किनका? जो सच बोलकर इस बात को साबित कर देते हैं कि हम इस पीड़न के पात्र नहीं (क्योंकि हम झुठ नहीं बोलते) उनका! इस नियम और इस कल्पना से धार्मिक समझे जानेवालों की भी मानहानि है; केवल नास्तिकों ही की नहीं। अर्थात् ये बाते दोनों के लिए अपमानजनक हैं। क्योंकि यदि यह मान लिया जाय कि परलोक पर जिनका विश्वास नहीं है वे जरूर ही झूठ बोलते हैं तो इससे यह भी सिद्ध होता है कि परलोक पर जिनका विश्वास है, अर्थात् जोधर्मवादी हैं; वे जव गवाही देते हैं तव नरक में जाने के डर से ही सच बोलते हैं। क्या ही अच्छा सिद्धान्त है! क्या ही अच्छी धर्मशीलता है! परन्तु जिन लोगों ने इस नियम को बनाया है और जो लोग इसके पृष्ट-पोषक हैं उन पर यह आरोप रखकर मैं उन्हें खेद नहीं पहुँचाना चाहता कि इस धर्म-तत्त्व को उन्होंने अपने ही अन्तःकरण ले-अपने ही मन से निकाला है।

सच बात यह है कि ये नियम पुराने प्रजा-पीड़नके पुछल्ले हैं। इससे यह न समझना चाहिए कि जिन्होंने ऐसे नियम बनाये उनकी इच्छा जानबूझकर किसी को तंग करने, सताने या पीड़ा पहुँचाने की थी। नहीं। अंगरेजों के स्वभाव में एक यह विलक्षणता है कि यद्यपि वे किसी बुरे खयाल से किसी अनुचित सिद्धान्त को व्यवहार में नहीं लाना चाहते, तथापि उसका प्रति--