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स्वाधीनता।


नशीलता सामाजिक है; अर्थात् वह सिर्फ समाज की बातों से सम्बन्ध रखती है। इसले उसके द्वारा किसीकी जान नहीं जाती; किसीकी राय या सम्मतिका समूल ही नाश नहीं हो जाता। पर होता क्या है कि भिन्न मतवाले उन बातों को छिपाने की कोशिश करते हैं। और यदि वे यह नहीं भी करते हैं तो उन बातों के प्रचार के लिए मन लगाकर प्रयत्न करने से दूर जकर रहते हैं। इस जमाने में नास्तिक माने गये आदमियों के मत न तो सर्वसाधारण के हृदय में मजबूती के साथ स्थान ही पाते हैं और न उनका वहांसे 'पूरे तौर पर लोप ही हो जाता है। उनका प्रकाश नहीं पड़ता। जिन दो चार विचारशील और विद्याव्यसनी आदमियों के मन में वे पैदा होते हैं उनके मन ही में वे सुलगते रहते हैं, वहीं वे लीन हो जाते हैं। उनका भला या बुरा प्रभाव साधारण आदमियों के कामकाज पर नहीं पड़ता-उनका झूठा या सच्चा उजेला मनुष्य-जाति की दैनिक चर्या पर एक बार भी नहीं पड़ता। यह स्थिति यह हालत-किसी किसीको बहुत ही पसंद है। क्योंकि, एक आध नास्तिक या पाखण्ड-मतवादी पर बिना जुरमाना ठोंके, या उसे बिना कैद किये ही, प्रचलित मतप्रचलित रीति-रिवाज-का प्रचार पूर्ववत् बना रहता है। इससे एक बात यह भी होती है कि जिन नास्तिकों को विचार और विवेचना रूपी रोग लग जाता है उनकी विचार-परम्परा का भी प्रतिबन्ध नहीं होता। जुरमाना और जेल का डर न रहने से वे लोग विचार और विवेचना बंद नहीं करते। विचाररूपी संसार में-मनोरूपी दुनिया में-शान्ति रखने और सब चीजों को पूर्ववत् अपनी अपनी जगह पर बनी रखने के लिए यह बहुत अच्छी, बहुत सीधी और बहुत सुविधा-जनक युक्ति जरूर है। इसमें सन्देह नहीं। परन्तु इस मानसिक शान्ति, इस विचार-स्थैर्य इस मौन-धारणा की प्राप्ति की बहुत बड़ी कीमत देनी पड़ती है। उसके लिए आदमी के मन की सारी नैतिक शक्ति और सारे विचार-धैर्य की आहुति हो जाती है। उसका समूल नाश हो जाता है। यह कीमत बहुत जियादह है। इस प्रकार विचार और विवेचना की शक्ति का हास हो जाने से सबसे अधिक विचारशील, समझदार, शोधक और विवेकवान् आदमी भी यह समझने लगते हैं कि अपने सिद्धान्तों और उनके प्रमाणों को अपने मन ही में रक्खे रहना अच्छा है। सर्व साधारण पर उनके जाहिर करने से कोई लाभ नहीं। यदि सबके सामने