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दूसरा अध्याय।


है, जिसे अन्तःकरण नहीं कबूल करता, उसे सच साबित करने, उले मनोऽ. नुकूल बतलाने, की कोशिश हमेशा व्यर्थ जाती है। विचार और विवेचना की कसौटी में कलने पर-बुद्धि और अन्तःकरणरूपी आग में तपाने परजो सिद्धान्त खरा निकले-चाहे वह जैसा हो-उसको ही कबूल करना सच्चे तत्त्वज्ञानी का सब से बड़ा कर्तव्य है। जो इस बात को नहीं जानता वह कभी महातत्ववेत्ता नहीं हो सकता, कभी मशहूर ज्ञानी नहीं हो सकता, कभी प्रसिद्ध दार्शनिक या नैय्यायिक नहीं हो सकता। जो आदमी खूब छान बीनकर, खूब समझ बूझकर खूब विचार और विवेचना करके किसी बात को स्वीकार करते हैं उनके उस स्वीकार में यदि भूल भी हो जाय, यदि वे किसी झूठ मत को भी सच मान लें, तो भी, वे उन लोगों की, अपेक्षा सत्य के अधिक हितकर्ता समझे जाते हैं जो मन को मनन करने का श्रम न देकर, वे समझे वूझे, झूठ बातों को सच मान लेते हैं-अनुचित और अनुपयोगी सिद्धान्तों को उचित और उपयोगी समझ बैठते हैं। विचार और विवेचना की स्वाधीनता सिर्फ इस लिए दरकार नहीं कि लोग बड़े बड़े तत्त्वदर्शी, दार्शनिक या विदेचक बने। नहीं। मामूली आदमियों के मानसिक विचार, या उनकी मानसिक शक्ति, की जितनी उन्नति हो सकती है उतनी उन्नति करने के लिए भी विचार-स्वाधीनता की जरूरत है। मैं तो समझता हूं कि लोगों को महान् तत्वविवेचक बनाने की अपेक्षा मामूली आदमियों के मन की उन्नति करने के लिए विचार-स्वाधीनता की अधिक जरूरत है। जहां विचार और विवेचना की स्वाधीनता नहीं है जहां उनका प्रतिबन्ध है-वहां भी कभी कभी दो एक तत्वदर्शी पुरुप पैदा हो सकते हैं; हुए भी है; और उनके होने की सम्भावना भी है। परन्तु विचार-स्वाधीनता न होने से सब लोग, अर्थात् सर्व-साधारण, न कभी चपलवुद्धि हुए और न कभी उनके होने ही की सम्भावना है। जब बुद्धि की सचालना ही न होगी; जब बुद्धि से काम ही न लिया जायगा; जब विचार और विवेचना की शान पर बुद्धि घिसी ही न जायगी, तब वह तेज होगी कैसे? जिस जाति या समुदाय ने, विचार-स्वाधीनता के न होने पर, भी बुद्धि की प्रखरता दिखलाई होगी उसमें, उस समय, विरोधियों के दल की प्रबलत्ता का डर जरूर कम हो गया होगा। ऐसी अवस्था में बुद्धिमें, तीनता आने का इसके सिवा और कोई कारण नहीं हो सकता। जहां लोगों

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