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स्वाधीनता।


स्पर-विरुद्ध प्रमाणों के मध्य में अवलम्बित रहती है। सृष्टिशास्त्र में भी एक ही कार्य का कोई दूसरा भी कारण दिखलाया जा सकता है। कोई कोई यह सिद्धान्त उपस्थित करते हैं कि इस विश्व के बीच में सूर्य नहीं है, पृथ्वी है। अथवा जीवधारियों के सजीव रहने का कारण प्राणप्रद-वायु नहीं है; एक प्रकार की दहनशील, अर्थात् अग्निगर्भ, वायु है। ऐसी उलटी कल्पनाओं को झूठ साबित करने के लिए प्रमाण देने पड़ते हैं। और जब तक हम उन कल्पनाओं का सप्रमाण खण्डन नहीं करते तब तक हम यह दावा नहीं कर सकते कि हम अपने सिद्धान्तों को अच्छी तरह समझते हैं। यह विद्याविपयक बात हुई। ऐसे विषयों से सम्बन्ध रखनेवाली झूठी कल्पनाओं का खण्डन करना कठिन नहीं होता। परन्तु जब हम साधारणनीति, राजनीति, धर्म, समाजसंस्कार और व्यवहार शास्त्र आदि जटिल विषयों की तरफ निगाह करते हैं तब हमें यह साफ मालूम होता है कि जिन सच्चे सिद्धान्तों के सम्बन्ध में वाद-विवाद होता है उनके विरुद्ध प्रमाणों का खण्डन करने ही में-उनको गलत साबित करने ही में दलीलों का तीन चौथाई हिस्सा खर्च हो जाता है। पुराने जमाने में दो बहुत बड़े वक्ता हो गये हैं-ग्रीस में डिमास्थनीज और रोम में सिसरो। सिसरो एक बहुत मशहूर वकील था। उसने लिख रक्खा है कि जब वह कोई मुकद्दमा लेता था तब उस मुकद्दमे का मनन करने और उसके कागज-पत्र देखने में वह जितनी मेहनत करता था उतनी ही-किम्बहुना उससे भी अधिकवह अपने मुअकिल के विरोधी की दलीलों का मनन करके उनके खण्डन करने में करता था। किसी बात के सत्यांश को जानने के इरादे से जो उसकी विवेचना करना चाहते हों उनको उचित है कि वे सिसरो का अनुकरण करें। बिना ऐसा किये झूठ और सच का पता नहीं लग सकता। किसी विषय में जो सिर्फ अपनी ही तरफ देखता है, जिसे सिर्फ अपने ही पक्ष का ज्ञान रहता है, जो सिर्फ अपनी ही दलीलों पर विचार करता है उसे याद रखना चाहिए कि वह उस विषय का बहुत ही कम ज्ञान रखता है। उसके प्रमाण चाहे जितने सबल हों, उसकी दलीलें चाहे जितनी अच्छी हों, उसकी बातों का चाहे किसीने खण्डन न किया हो, तथापि वह उस विषय का पूरा नाता नहीं कहा जा सकता। जिसने अपने विरीधी के प्रमाणों का खण्डन नहीं किया, अधिक क्या कहा जाय उसकी दलीलों को उसने सुन