पृष्ठ:हिंदी कोविद रत्नमाला भाग 1.djvu/१०६

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परिवर्तन हो चला । क्रमशः आनंद विनोद पोर मन बहलार। दूसरे नगरों के परिभ्रमण में भी न्यूनता न रहो। संवत् १९२ में ये प्रथम बार कलकत्ते गप सार यहां से लौटने पर बरस बीमार पड़े रहे, जिसमें इन्हें साहित्य-संबंधी विशेषतः मजमार नारायण सिंह आदि का साथ हो जाने से इन्हें अश्वारोहन, ग संचालन,लक्ष्यवेध और मृगया से अधिक अनुराग हो गया और यहो मानों इनके बाल्यावस्था क्रीड़ा की सामग्री थी । ये निज सहचर्ये के संग प्रायः घुड़दौड़ करते और शिकार खेलते थे । संवत् १९२४ में ये यहाँ से फैजाबाद चले आए और वह जिला स्कूल में पढ़ने लगे। उसी वर्ष इनका विवाह भी घड़ी धाम से जिला जौनपुर के समंसाग्राम में हुमा । संवत् १९२ इनके पितामह का स्वर्गवास होने से इन्हें मिर्जापुर लौट कर ! जिला स्कूल में पढ़ना पड़ा और संयत् १९२७ के प्रारंभ में । स्कूल का पढ़ना छोड़ स्वतंत्र मास्टर से पढ़ने और घर के के को देख भाल में लगना पड़ा। फिर इनके पिता ने इन्हें संर पढ़ाना प्रारंभ किया क्योंकि वे हिंदी, फ़ारसी के अतिरिक संर में अच्छे पंडित और उसके विशेष अनुरागी थे। उन्हें प्रायः नगरों और विदेशों में भ्रमण करना पड़ता था, इसीसे अपने प पद् वर्गों में से पंडित रामानंद पाठक को जो एक अच्छे विद्वान इन्हें पढ़ाने के लिये नियुक्त किया । इन पंडित जी के कारण । कविता से अनुराग हुआ, और यही इनके मानों कविता के गुरु थे। किंतु घर के काम में पड़ने से इनकी प्रकृति में सामग्रियाँ प्रस्तुत होने लगों पर साथ ही साहित्य की चर्चा रही । संगीत पर इनका अनुराग सबसे अधिक प्रवल हुमा ताल सुर की परख बेहद बढ़ चली। निदान अब विदूस हो ओर लग चला तथा भांति भांति के कार्यों के संग दूस