पृष्ठ:हिंदी कोविद रत्नमाला भाग 1.djvu/१८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

स्वामी जी ने योगाभ्यास के ज्ञाता की खोज में पर्यटन करना निश्चय किया और इसके लिये पिता की आज्ञा चाही। पर वे क्यों प्राक्षा देने लगे थे? ये तो इनके विवाह की युक्ति में लगे थे। अस्तु, विना आशा ही स्वामी जी घर से निकल पड़े और साधुओं के सत्संग में निरत हुए, परंतु इन्हें यथार्थ में कोई साधु न मिला, जो मिले उनसे इनका संतोप न हुआ, अतः इनकी साधुओं से भी भ्रद्धा हट गई । इसी घोच में इनके पिता जी ने इन्हें प्रान एकड़ा और चार सिपाहियों के पहरे में घर ले चले परंतु रास्ते में रात को उठ कर पे फिर भाग खड़े हुए और उत्तर में अलकनंदा के किनारे विश्राम लिया। इस ओर इन्हें कई अच्छे अच्छे साधुओं के दर्शन हुए और उन लोगों ने इन्हें कुछ योग क्रियाएं भी बतलाई । पलकनंदा के तट पर पहुँच कर पहिले तो इन्होंने चाहा कि बरफ में गल कर प्राण देदे और संसार के झंझटों से पार हो जायें पर फिर सोचा कि आत्महत्या तो महापाप है, ऐसा क्यों करें? विद्या- ध्ययन करके हो इस जीवन को सफल क्यों न करें? यह निश्चय करके स्वामी जी मथुरा पाए । यहां स्वामी विरजानंद नामक एक घिलक्षण विद्वान् महापुरुष रहते थे । थे माखों से अंधे थे। प्रयया ८१ वर्ष की थी। स्वामी जी उनसे विद्याध्ययन करने लगे। इन्होंने उनकी खूब मन लगा कर सेवा शुश्रूपा की और उन्होंने इन्हें प्रसन्न-चित्त से शिक्षा दो। जब ये विद्या पढ़ चुके तो थोड़ी सी लौंग लेकर गुरुजी से नशा मांगने गए। उन्होंने इनको आशीर्वाद देकर प्रसन्नतापूर्वक माझा दी और मादेश किया कि तुम देश का उसार करो, लोगों को असत्मार्ग से हटा कर घेद-मत पर लामो। 'मनाचारों' का नाश करो पार येद-पिहिन सदाचारों का प्रचार करके मानव समाज का उपकार करो। गुरु जी को इस पाशा को स्वामी जी ने किस प्रकार से पालन