पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/१०

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हिंदी भाषा . कर्मणा' आदि भी और 'देवकर्मभिः' (ऋ० १० ॥ १३०११) भी; 'पश्चात्' (अथ०४।१०।३) भी और 'पश्चा' (नथ०१०।४।११, शत० प्रा० १।१।२।५) भी; (प्रारत में इसी से 'पच्छा' और हिंदी में 'पाठ' या 'पाछा' निकला है ) 'युप्मान्' (मु०१ । १६१ । १४, तै० सं० १।१।५) भी और 'युष्मा' (वा० सं०१।१३।१, श० प्रा० १।२६ ) भी; 'उचात्' के स्थान में 'उच्चा' (तै० सं०२।३।१४) और 'नीचात्' के स्थान में 'नीचा' (तै० सं० ११२।१४) भी। पर संस्कृत में इस प्रकार व्यंजन का लोप नहीं होता। 'पश्चार्ध' शब्द का प्रयोग देखकर कात्यायन को एक नया वार्तिक कहना पड़ा। प्राकृत में संयुक्त वणों में से एक का लोप फर पूर्ववर्ती हस्त्र स्वर को दीर्घ कर दिया करते हैं। जैसे- 'कर्तव्य = कातब्ध', 'निश्वास-नीसास', 'दुर्हार दूहार', (हिंदी-'धर्म = घाम', 'चर्म = चाम', 'दुर्लभ = दूलह', 'भिल्ल =भील', 'शुष्क - सूखा', 'मुद्ग-मूंग', 'निम्वनीम', इत्यादि)। वैदिक भाषा में भी ऐसा होता है-'दुर्दभ - दूडभ', (वा० सं०३।३६, ऋ०४।१1८) 'दुर्नाश= दूणाश' (शु० य० प्रातिशा०३।४३)। स्वरभक्ति का प्रयोग दोनों भाषाओं में प्रचुरता से होता है। प्राकृत-'लिन्न = किलिन्न', 'स्व = सुध', (हिंदी- 'मिश्र=मिसिर', 'धर्म-धरम', 'गुप्त गुपुत', 'ग्लास= गिलास' ), वैदिक-तन्वा तनुवः' (तैत्ति० प्रार०७।२२। १), 'स्वः-सुवः' (तैत्ति. श्रार०६।२७) 'स्वर्गः =सुवर्गः (तैत्ति० सं०४।२।३, मैत्र० प्रा० १।१।१) 'सन्या रानिया', 'सहरुयः सहस्त्रियः' इत्यादि । दोनों ही में पद्गत किसी वर्ण का लोप करके उसे फिर संकुचित कर देते हैं। प्राकत-'राजकुल-राउल' (मिलाओ-पु० हिं० राउर), 'कालायस = कालास' इत्यादिः वैदिक-'शतक्रतवः-शतक्रत्वः', 'पशवेपश्य', 'निविविशिरे =निविविणे' इत्यादि । शौरसेनी प्राकृत में अकारांत शब्द प्रथमा के एकवचन में श्राकारांत हो जाता है। जैसे 'देवः = देवो', 'सः = से प्यादि। थैतिक भाषा में भी ऐसा प्रयत्र दुर्लभ महीं। 'स.चित् = सो चित्' (०१।१६।१), 'संवत्सरः अजायत संवत्सरो अजायत' इत्यादि । इस यात की पुष्टि में और भी बहुत से उदाहरण दिए जा सकते हैं कि प्राचीन चैदिक भापा से ही प्राकतों की उत्पत्ति हुई, अर्वाचीन संस्कृत से नहीं। यद्यपि लोगों ने समय समय पर प्राकृत को नियमित और पद्ध करने का प्रयत्न किया, तथापि घोलचाल की उस भाषा का प्रवाह किसी न किसी रूप में चलता रहा, उसमें कोई रुकावट न हो सकी। यही 'प्राकत' अथवा बोलचाल की भार्य-भाषा क्रमशः अाधुनिक भारतीय देशभापायों के रूपों में प्रकट हुई।