पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/१००

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१०० हिंदी भाषा ग्रज० 'किर ते' अवधी 'किएसन' -फरने से। कारक चिह्न प्रायः उड़ा भी दिया जाता है, केवल उसका सूचक चिकार क्रिया के रूप में रह जाता है; जैसे-किए, दीने। क्रिया का वर्तमान कृदंत रूप ब्रिजभाषा खड़ी बोली के समान गुर्वत भी रखती है। जैसे-आवतो, जातो, भावतो, सुहातो। (उ०-- जव चहिहै तब माँगि पठेहै जो फोउ थावत जातो!-सूर।) और अवधी के समान लध्वंत भी; जैसे श्रावत, जात, भावत, सुहात । कविता में सुभीते के लिये लघ्नत का ही प्रहण अधिक है। जिन्हें व्रज और अवधी के स्वरूप का ज्ञान नहीं होता, चे 'जात' को भी 'जावत' लिख जाते है। सड़ी बोली में साधारण क्रिया का केवल एक ही रूप 'ना' से अंत होनेवाला ( जैसे, श्राना, जाना, करना) होता है; पर प्रजभाषा में तीन रूप होते हैं-एक तो 'नो' से अंत होनेवाला; जैसे-आयनो, करनो, लेनो, देनो, दूसरा 'न' से अंत होनेवाला; जैसे-श्रावन, जान, लेन, देन; तीमरा 'वो' से अंत होनेवाला; जैसे-श्रायबो, करियो, देवो, या लेयो इत्यादि। फरना, देना और लेना, के 'कीयो', 'दीयो' और 'लीवो' रूप भी होते हैं। ब्रज के तीनों रूपों में से कारक के विह्न पहले रूप (श्रावनो, जानो) में नहीं लंगते, पिछले दो रूपों में ही लगते हैं। जैसे-श्रावन को, जान को, देवे को इत्यादि । शुद्ध श्रवधी में कारक चिह्न लगने पर साधारण क्रिया का रूप धर्तमान तिडंत फा हो जाता है; जैसे-श्रावर के, जाइ के, श्राव में, जाइ में अथवा श्रावइ को, जाइ को, थावइ मौ, जाइ माँ। उ०-जात पवनसुत देवन देखा। जानइ चह चल बुद्धि विसेखा। तुलसी। ___ पूरवी या शुद्ध अवधी में साधारण किया के अंत में घ रहता है; जैसे-श्राउव, जाय, फरय, हँसव इत्यादि। इस य की असली जगह पूरबी भाषाएँ ही हैं जो इसका व्यवहार भविष्यत् काल में भी करती हैं। जैसे-पुनि श्राव यहि बेरियो काली ।-तुलसी। उत्तम पुरुप (हम करव, मैं करवौं ) और मध्यम पुरुष (तू करया, ते करवे) में तो यह परावर बोला जाता है; पर साहित्य में प्रथम पुरुप में भी यराघर इसका प्रयोग मिलता है। यथा-(क) तिन निज और न लाउय भोरा।- तुलसी। (ख) घर पहठत पूछच यहि हारू। फोन उतरु पाउव पैसारू।-जायसी। पर ऐसा प्रयोग सुनने में नहीं नाया। मध्यम पुरुप में विशेष कर पाशा और विधि में य में ई मिलाकर ब्रज के दक्षिण से लेकर बुंदेलखंड तक बोलते हैं। जैसे नायवी, करवी इत्यादि। उ०- (क) यह राज साज समेत सेवफ जानिधी विनु गथ लए। (स) ए