पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/१०१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

साहित्यिक हिंदी की उपभाषाएँ दारिका परिचारिका करि पालिची फरुनामई ।-तुलसी। यह प्रयोग व्रजभाषा के ही अंतर्गत है और साहित्य में प्रायः सब प्रदेशों के कवियों ने इसे किया है; सूर, बोधा, मतिराम, दास यहाँ तक कि रामसहाय ने भी। जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, जब साहित्य की एक व्यापक और सामान्य भापा बन जाती है, तब उसमें कई प्रदेशों के प्रयोग श्रा मिलते हैं। साहित्य की भाषा को जो व्यापकत्व प्राप्त होता है, वह इसी उदारता के यल से। इसी प्रकार 'स्यो' ( - सह, साथ) शब्द बुंदेल- खंड का समझा जाता है, जिसका प्रयोग केशवदासजी ने, जो बुंदेलखंड के थे, किया है; यथा-"अलि स्यो सरसीरुह राजत है।" बिहारी ने तो इसका प्रयोग किया ही है, पर उन्होंने जैसे करिबी और स्यो का प्रयोग किया है, वैसे ही अवधी कीन, दीन, केहि (= किसने) का प्रयोग भी तो किया है। स्यो का प्रयोग दासजी ने भी किया है जो खास अवध के थे, यथा--स्यो ध्वनि अर्थनि वाक्यनि लै गुण शब्द अलंकृत सों रति पाकी। श्रतः किसी के काव्य में स्थानविशेष के कुछ शब्दों को पाकर चटपट यह निश्चय न कर लेना चाहिए कि वह, उस स्थान ही का रहनेवाला था। सूरदास ने पंजाबी और पूरवी शब्दों का व्यवहार किया है। अब उन्हें पंजाबी कहें या पुरविया १ उदाहरण लीजिए-- जोग-मोट सिर बोझ यानि कै कत तुम घोप उतारी। एतिक दुरि जाहु चलि काशी जहाँ विकति है प्यारी। महँगा के अर्थ में प्यारा पंजाबी है। अब पूरवी का नमूना लीजिए--गोड़ चापि लै जीभ मरोरी। गोड़ (पैर) खास पूरवी है। इस प्रकार हिंदी की तीन मुख्य भाषाएँ, ब्रजभापा, अवधी और खड़ी बोली का विवेचन समाप्त होता है। साधारणतः हम कह सकते ।। हैं कि ब्रजभापा श्रोकार-बहुला, अवधी एकार-बहुला और खड़ी बोली ।। आकार-बहुला भाषा है।