पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/१०३

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१०३ हिंदी का शास्त्रीय विकास भागे। और यदि जीभ की खड़ी स्थिति अर्थात् ऊँचाई-निचाई का विचार करें तो इस ध्वनि के उच्चारण में जीभ नीचे नहीं रहती-थोड़ा सा ऊपर उठती है इससे उसे श्रद्धविवृत मानते समानाक्षर हैं। इसका उच्चारण-काल केवल एक मात्रा है। उदाहरण-श्रव, कमल, घर, में श्र, क, म, घ। यहाँ यह ध्यान देने की बात है कि हिंदी शब्द और अक्षर के अंत में श्र का उच्चारण नहीं होता। ऊपर के ही उदाहरणों में य; ल, र में हलंत उच्चारण होता है-श्र का उच्चारण नहीं होता। पर इस नियम के अपवाद भी होते हैं जैसे दीर्घ स्वर अथवा संयुक्त व्यंजन का परवर्ती श्र अवश्य उच्चरित होता है; जैसे-सत्य, सीय। 'न' के समान एकाक्षर शब्दों में भी पूरा उच्चारित होता है। पर यदि हम वर्णमाला मे अथवा अन्य किसी स्थल में क, ख, ग श्रादि वर्गों को गिनाते हैं तो अका उच्चारण नहीं होता अत: 'क' लिखा रहने पर भी ऐसे प्रसंगों में वह हलंत क ही समझा जाता है। (२) मा-यह दोघं और विवृत पश्च स्वर है और प्रधान श्रा से बहुत कुछ मिलता-जुलता है। यह श्र का दीर्घ रूप नहीं है क्योंकि दोनों में मात्रा-भेद ही नहीं, प्रयत्न-भेद और स्थान-भेद भी है। श्र के उच्चारण में जीभ बीच में रहती है और श्रा के उच्चारण में बिलकुल पीछे रहती है अतः स्थान-भेद हो जाता है। यह स्वर हस्य रूप में व्यवहत नहीं होता। . उदा०-आदमी, काम, स्थान । (३) ओं-अँगरेजी के कुछ तत्सम शब्दों के बोलने और लिखने में ही इस अर्धविवृत पश्च नाँ का व्यवहार होता है। इसका स्थान प्रा से ऊँचा और प्रधान स्वर ओं से थोड़ा नीचा होता है। उदा०-कांग्रेस, लॉर्ड। (४)ौं-यह अर्धविवृत हस्व पश्च वृत्ताकार स्वर है। अर्थात् इसके उच्चारण में जीभ का पिछला भाग (=जिह्वामध्य) अर्धचिवृत पश्च प्रधान स्वर की अपेक्षा थोड़ा ऊपर और भीतर की ओर जाकर दव जाता है। होठ गोल रहते हैं। इसका व्यवहार ब्रजभापा में पाया जाता है। उदा०-अवलोकि हाँ सोच-विमोचन फो (कवितावली, याल- कांड १); वरु मारिए मोहिं विना पग धोए, हाँ नाथ.न नाव चढ़ाइहाँ जू ( कवितावली, अयोध्याकांड ६)।