पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/११

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प्राचीन भाषाएँ जैसा कि हम ऊपर कह थाए हैं, श्रारंभ से ही जन साधारण की। पोलचाल की भाषा प्राकृत थी। घोलचाल की भाषा के प्राचीन रूप के ही अाधार पर वेद-मंत्रों की रचना हुई थी और उसका प्रचार ब्राह्मण- अंथों तथा सूत्र ग्रंथों तक में रहा। पीछे से वह परिमार्जित होकर संस्कृत रूप में प्रयुक्त होने लगी। वोलचाल की भापा का अस्तित्व नष्ट नहीं हुआ, वह भी बनी रही; पर इस समय हमें उसके प्राचीनतम उदा- हरण उपलब्ध नहीं है। उसका सबसे प्राचीन रूप जो इस समय हमें प्राप्त है, वह अशोक के लेखों तथा प्राचीन बौद्ध और जैन ग्रंथों में है। उसी को हम प्राकृत का प्रथम रूप मानने के लिये बाध्य होते हैं। उस रूप को 'पाली' नाम दिया गया है। यह नाम भाषा के साहित्यारूढ़ होने के पीछे का है जव कि इस पर शौरसेनी का पूरा पूरा प्रभाव पडा और उसी के अनुसार श्राकारांत रूप इसमें प्रयुक्त होने लगे। पहले त्रिपिटक की मूल पंक्तियों के लिये इसका प्रयोग होता था। है भी यह पंक्ति' शब्द से ही निकला हुना। 'पंक्ति' से 'पंत्ति' 'पत्ती' (दे० धेनुपत्तो; विदग्ध- माधव पृ०१८); 'पत्ती' से 'पट्टी', (इसका प्रयोग 'कतार' के अर्थ में अव भी होता है) 'पट्टी' से 'पाटी' और उससे 'पाली'। इस पाली को तंत्ति, मागधी या मागधी निरुक्ति भी कहते थे। पर यह मागधी अर्वाचीन मागधी से बहुत भिन्न थी। यही उस समय बोलचाल की भापा थी। वुद्धदेव यही वोलते थे। चौद्ध इसी को श्रादि भाषा मानते और बड़े गर्व से पढ़ा करते हैं- .'सा मागधी मूलभापा नरा यायादिकप्पिका। ब्रह्माण च स्सुतालापा सबुद्धा चापि भासरे ॥ . 'श्रादि कल्प में उत्पन्न मनुष्यगण, ब्रह्मगण, संयुद्धगण, एवं वे व्यक्ति- गण जिन्होंने कभी कोई शब्दालाप नहीं सुना, जिसके द्वारा भाव प्रकाशन किया करते थे वही मागधी भाषा मूल भाषा है। वैदिक भाषा में नहीं किंतु इसी भाषा में वुद्धदेव अपना धर्मचक्र प्रवर्तन करना चाहते थे, इस संबंध में विनयपिटक में एक कहानी है। उसमें लिखा है-यमेल और उतेकुल नाम के दो ब्राह्मण भ्राता भिनु थे। उन्होंने एक दिन बुद्धदेव से निवेदन किया कि "भगवन् ! इस समय भिन्न भिन्न नाम गोत्र और जाति-कुल के प्रवजित अपनी अपनी भाषा में कहकर आपके वचन दूपित कर रहे हैं। हम उन्हें छंद (= चेदभापा-संस्कृत) में परिवर्तित करना चाहते है।" बुद्धदेव ने उनका तिरस्कार कर कहा-"भिनुओ! वुद्ध- चचन को छंद में कभी परिणतन करना। जो करेगा, वह दुप्कृत का अपराधी होगा। हे भिक्षुगण ! वुद्धवचन को अपनी ही भाषा में ग्रहण