पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/११२

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हिंदी भाषा . उदा०-सूड़, कड़ा, बड़ा, बड़हार। हिंदी में इस.ध्वनि का बाहुल्य है। . (३४) ढ़-महाप्राण, घोप, मूर्धन्य, उत्क्षिप्त ध्वनि है। यह ड़ का ही महाप्राण रूप है। ड, ढ स्पर्श हैं और ड़, ढ़ उरिक्षप्त ध्वनि हैं। यस यही भेद है। ड, ढ का व्यवहार शब्दों के आदि में ही होता है और ड़, द का प्रयोग दो स्वरों के बीच में ही होता है। उदा०-बढ़ना, बूढ़ा, मूढ़। (३५) ह-काकल्य, घोप, धर्प ध्वनि है। इसके उच्चारण में जीभ, तालु अथवा होठों से सहायता नहीं ली जाती। जब हवा फेफड़े में से वेग से निकलती है और मुखद्वार के खुले अपवण रहने से काफल के बाहर रगड़ उत्पन्न करती है तय इस ध्वनि का उच्चारण होता है। ह और श्र में मुख के अवयव प्रायः समान रहते हैं पर ह में रगड़ होती है। उदा०-हाथ, कहानी, टोह। . ह के विषय में कुछ बातें ध्यान देने योग्य है। 'ह' शब्द के श्रादि और अंत में अघोप उच्चरित होता है, जैसे-हम, होठ, हिंदु और छिह , छह , कह , यह श्रादि। पर जय ह दो स्वरों के मध्य में आता है तब उसका उच्चारण घोप होता है, जैसे-रहन, सहन। पर जब वह महा- प्राण व्यंजनों में सुन पड़ता है तब कभी अघोप और कभी घोप होता है। जैसे-ख, छ, थ में अघोप ह है और घ, झ, ध, ढ, भ, ल्ह, न्ह श्रादि में घोष है। अघोप ह का ही नाम विसर्ग है। 'ख' जैसे वर्णों में और छिः जैसे शब्दों के अंत में यही अघोप ह अथवा विसर्ग सुन पड़ता है। यह सच कल्पना अनुमान श्रार स्थल पर्यवेक्षण से सर्वथा संगत लगती है पर अभी परीक्षा द्वारा सिद्ध नहीं हो सकी है। कादरी, सक्सेना, चैटर्जी आदि ने कुछ प्रयोग किये हैं पर उनमें भी ऐक- मत्य नहीं है। पिसर्ग के लिये लिपि-संकेत ह अथवा : है। हिंदी ध्वनियों में कि इसका प्रयोग कम होता है। वास्तव में यह अघोप ह है पर कुछ लोग इसे पृथक् ध्वनि मानते हैं। (३६) ख-ख जिह्वामूलीय, अघोप, घर्प-ध्वनि है। इसका उच्चारण जिह्वामूल और कोमल तालु के पिछले भाग से होता है, पर दोनों अवयवों का पूर्ण स्पर्श नहीं होता। अतः उस खुले विवर से हवा रगड़ खाकर निकलती है, अतः इसे स्पर्श-न्यंजनों के वर्ग में रखना उचित नहीं माना जाता। यह ध्वनि फारसी-अस्यी तत्सम शब्दों में