पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/११५

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११५ हिंदी का शास्त्रीय विकास की ही संख्या अधिक थी। कुछ दिन पहले यह माना जाता था कि संस्कृत को वर्णमाला सबसे अधिक पूर्ण है। यही ध्वनियाँ थोड़े परि- वर्तन के साथ मूल भाषा में रही होगी पर अव खोजों द्वारा सिद्ध हो गया है कि संस्कृत की अपेक्षा मूल भाषा में स्वर और व्यंजन ध्वनियाँ कहीं अधिक थीं। भारोपीय ध्वनि-समूह . स्वर-उस काल के अक्षरों का ठीक उच्चारण सर्वथा निश्चित तो नहीं हो सका है तो भी सामान्य व्यवहार के लिये निम्नलिखित संकेतों से उन्हें हम प्रकट कर सकते हैं। समानाक्षर-a, a;e, e:0,0; a; i, i; , u; . (१) इनमें से a, e, o, i u हस्त्र अक्षर हैं। नागरी लिपि में हम इन्हें श्र, ए, ओ, इ तथा उ से अंकित कर सकते हैं। (२) और ॥ श्रा, ए, श्रो, 1 ई और । ऊ दीर्घ अक्षर होते हैं। (३) एक हस्वार्ध स्वर है जिसका उच्चारण स्पष्ट नहीं होता। इसे ही उदासीन (neutral) स्वर कहते हैं। स्वनंत वर्ण-उस मूल भाषा में कुछ ऐसे स्वनंत वर्ण भी थे जो अक्षर का काम करते थे; जैसे-m, n, r, 1 ; नागरी में इन्हें हम म्, न्, र, ल् लिख सकते हैं। m, n प्रातरिक अनुनासिक व्यंजन हैं और r, 1 आतरिक द्रव अथवा अंतस्थ व्यंजन हैं। संध्यक्षर-अर्धस्वरों, अनुनासिकों और अन्य द्रव वर्गों के साथ स्वरों के संयोग से उत्पन्न अनेक संध्यक्षर अथवा संयुक्ताक्षर भी उस मूलमापा में मिलते हैं। इनकी संख्या अल्प नहीं हैं। उनमें से मुख्य ये हैं- _ai, aij ei, eioi, oi; au, du, eu, eu, ou, bu ; om, ___en, ar, el. व्यंजन-स्पर्श-वर्ण- (१) श्रोष्ठ्य वर्ण- p, (२) दंत्य- t, th, d, dh. (३) कठ्य- , qh, g, gh. (४) मध्य कंठ्य- k, kh, g, gh. (५) तालव्य k kh, g, gh. अनुनासिक व्यजन-m, n, i (ड) और (म्)